शनिवार, 28 अक्टूबर 2017

ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो

.. Brahmajnanavalimala .. ॥ ब्रह्मज्ञानावलीमाला ॥ सकृच्छ्रवणमात्रेण ब्रह्मज्ञानं यतो भवेत् । ब्रह्मज्ञानावलीमाला सर्वेषां मोक्षसिद्धये ॥ १॥ असङ्गोऽहमसङ्गोऽहमसङ्गोऽहं पुनः पुनः । सच्चिदानन्दरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ २॥ नित्यशुद्धविमुक्तोऽहं निराकारोऽहमव्ययः । भूमानन्दस्वरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ ३॥ नित्योऽहं निरवद्योऽहं निराकारोऽहमुच्यते । परमानन्दरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ ४॥ शुद्धचैतन्यरूपोऽहमात्मारामोऽहमेव च । अखण्डानन्दरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ ५॥ प्रत्यक्चैतन्यरूपोऽहं शान्तोऽहं प्रकृतेः परः । शाश्वतानन्दरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ ६॥ तत्त्वातीतः परात्माहं मध्यातीतः परः शिवः । मायातीतः परंज्योतिरहमेवाहमव्ययः ॥ ७॥ नानारूपव्यतीतोऽहं चिदाकारोऽहमच्युतः । सुखरूपस्वरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ ८॥ मायातत्कार्यदेहादि मम नास्त्येव सर्वदा । स्वप्रकाशैकरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ ९॥ गुणत्रयव्यतीतोऽहं ब्रह्मादीनां च साक्ष्यहम् । अनन्तानन्तरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ १०॥ अन्तर्यामिस्वरूपोऽहं कूटस्थः सर्वगोऽस्म्यहम् । परमात्मस्वरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ ११॥ निष्कलोऽहं निष्क्रियोऽहं सर्वात्माद्यः सनातनः । अपरोक्षस्वरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ १२॥ द्वन्द्वादिसाक्षिरूपोऽहमचलोऽहं सनातनः । सर्वसाक्षिस्वरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ १३॥ प्रज्ञानघन एवाहं विज्ञानघन एव च । अकर्ताहमभोक्ताहमहमेवाहमव्ययः ॥ १४॥ निराधारस्वरूपोऽहं सर्वाधारोऽहमेव च । आप्तकामस्वरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ १५॥ तापत्रयविनिर्मुक्तो देहत्रयविलक्षणः । अवस्थात्रयसाक्ष्यस्मि चाहमेवाहमव्ययः ॥ १६॥ दृग्दृश्यौ द्वौ पदार्थौ स्तः परस्परविलक्षणौ । दृग्ब्रह्म दृश्यं मायेति सर्ववेदान्तडिण्डिमः ॥ १७॥ अहं साक्षीति यो विद्याद्विविच्यैवं पुनः पुनः । स एव मुक्तः सो विद्वानिति वेदान्तडिण्डिमः ॥ १८॥ घटकुड्यादिकं सर्वं मृत्तिकामात्रमेव च । तद्वद्ब्रह्म जगत्सर्वमिति वेदान्तडिण्डिमः ॥ १९॥ ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः । अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः ॥ २०॥ अन्तर्ज्योतिर्बहिर्ज्योतिः प्रत्यग्ज्योतिः परात्परः । ज्योतिर्ज्योतिः स्वयंज्योतिरात्मज्योतिः शिवोऽस्म्यहम् ॥ २१॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ ब्रह्मज्ञानावलीमाला सम्पूर्णा ॥ Encoded by Sunder Hattangadi (sunderh at hotmail.com) % Text title : Brahmajnanavalimala % File name : brahmajna.itx % itxtitle : brahmajnAnAvalImAlA % engtitle : Brahmajnanavalimala % Category : vedanta, shankarAchArya % Location : doc_z_misc_shankara % Sublocation : shankara % Author : Adi Shankaracharya % Language : Sanskrit % Subject : vedanta/hinduism/religion % Transliterated by : Sunder Hattangadi (sunderh at hotmail.com) % Proofread by : Sunder Hattangadi (sunderh at hotmail.com) % Translated by : - % Indexextra : meaning 1, 2 % Latest update : Mar. 27, 2002 % Send corrections to : Sanskrit@cheerful.com % Site access : http://sanskritdocuments.org This text is prepared by volunteers and is to be used for personal study and research. The file is not to be copied or reposted for promotion of any website or individuals or for commercial purpose without permission. Please help to maintain respect for volunteer spirit. Home Sitemap Sanskrit Links Blog Contributors Support GuestBook FAQ Search Last Updated on 08/23/2017 10:21:56 sanskritdocuments.org BACK TO TOP

ब्रह्मज्ञानावलीमाला

.. Brahmajnanavalimala .. ॥ ब्रह्मज्ञानावलीमाला ॥ सकृच्छ्रवणमात्रेण ब्रह्मज्ञानं यतो भवेत् । ब्रह्मज्ञानावलीमाला सर्वेषां मोक्षसिद्धये ॥ १॥ असङ्गोऽहमसङ्गोऽहमसङ्गोऽहं पुनः पुनः । सच्चिदानन्दरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ २॥ नित्यशुद्धविमुक्तोऽहं निराकारोऽहमव्ययः । भूमानन्दस्वरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ ३॥ नित्योऽहं निरवद्योऽहं निराकारोऽहमुच्यते । परमानन्दरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ ४॥ शुद्धचैतन्यरूपोऽहमात्मारामोऽहमेव च । अखण्डानन्दरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ ५॥ प्रत्यक्चैतन्यरूपोऽहं शान्तोऽहं प्रकृतेः परः । शाश्वतानन्दरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ ६॥ तत्त्वातीतः परात्माहं मध्यातीतः परः शिवः । मायातीतः परंज्योतिरहमेवाहमव्ययः ॥ ७॥ नानारूपव्यतीतोऽहं चिदाकारोऽहमच्युतः । सुखरूपस्वरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ ८॥ मायातत्कार्यदेहादि मम नास्त्येव सर्वदा । स्वप्रकाशैकरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ ९॥ गुणत्रयव्यतीतोऽहं ब्रह्मादीनां च साक्ष्यहम् । अनन्तानन्तरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ १०॥ अन्तर्यामिस्वरूपोऽहं कूटस्थः सर्वगोऽस्म्यहम् । परमात्मस्वरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ ११॥ निष्कलोऽहं निष्क्रियोऽहं सर्वात्माद्यः सनातनः । अपरोक्षस्वरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ १२॥ द्वन्द्वादिसाक्षिरूपोऽहमचलोऽहं सनातनः । सर्वसाक्षिस्वरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ १३॥ प्रज्ञानघन एवाहं विज्ञानघन एव च । अकर्ताहमभोक्ताहमहमेवाहमव्ययः ॥ १४॥ निराधारस्वरूपोऽहं सर्वाधारोऽहमेव च । आप्तकामस्वरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः ॥ १५॥ तापत्रयविनिर्मुक्तो देहत्रयविलक्षणः । अवस्थात्रयसाक्ष्यस्मि चाहमेवाहमव्ययः ॥ १६॥ दृग्दृश्यौ द्वौ पदार्थौ स्तः परस्परविलक्षणौ । दृग्ब्रह्म दृश्यं मायेति सर्ववेदान्तडिण्डिमः ॥ १७॥ अहं साक्षीति यो विद्याद्विविच्यैवं पुनः पुनः । स एव मुक्तः सो विद्वानिति वेदान्तडिण्डिमः ॥ १८॥ घटकुड्यादिकं सर्वं मृत्तिकामात्रमेव च । तद्वद्ब्रह्म जगत्सर्वमिति वेदान्तडिण्डिमः ॥ १९॥ ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः । अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः ॥ २०॥ अन्तर्ज्योतिर्बहिर्ज्योतिः प्रत्यग्ज्योतिः परात्परः । ज्योतिर्ज्योतिः स्वयंज्योतिरात्मज्योतिः शिवोऽस्म्यहम् ॥ २१॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ ब्रह्मज्ञानावलीमाला सम्पूर्णा ॥ Encoded by Sunder Hattangadi (sunderh at hotmail.com) % Text title : Brahmajnanavalimala % File name : brahmajna.itx % itxtitle : brahmajnAnAvalImAlA % engtitle : Brahmajnanavalimala % Category : vedanta, shankarAchArya % Location : doc_z_misc_shankara % Sublocation : shankara % Author : Adi Shankaracharya % Language : Sanskrit % Subject : vedanta/hinduism/religion % Transliterated by : Sunder Hattangadi (sunderh at hotmail.com) % Proofread by : Sunder Hattangadi (sunderh at hotmail.com) % Translated by : - % Indexextra : meaning 1, 2 % Latest update : Mar. 27, 2002 % Send corrections to : Sanskrit@cheerful.com % Site access : http://sanskritdocuments.org This text is prepared by volunteers and is to be used for personal study and research. The file is not to be copied or reposted for promotion of any website or individuals or for commercial purpose without permission. Please help to maintain respect for volunteer spirit. Home Sitemap Sanskrit Links Blog Contributors Support GuestBook FAQ Search Last Updated on 08/23/2017 10:21:56 sanskritdocuments.org BACK TO TOP

ब्रह्म त्रयी विद्या

अनुभूत-तंत्र तंत्र के द्वारा व्यक्ति राष्ट्र की उन्नति होती है,आज जो भी प्रगति है वह तंत्र के कारण ही है,यथा राजतंत्र,मशीन तंत्र उर्वरक तंत्र आदि। जो कल था वह आज नही है,जो आज है वह कल नही होगा,लेकिन तंत्र कल भी था,आज भी है,और कल भी रहेगा। MONDAY, AUGUST 30, 2010 दस महाविद्यायें शक्ति ग्रंथों में दस महाविद्याओं का वर्णन मिलता है,लेकिन जन श्रुति के अनुसार इन विद्याओं का रूप अपने अपने अनुसार बताया जाता है,यह दस विद्या क्या है और किस कारण से इन विद्याओं का रूप संसार में वर्णित है,यह दस विद्यायें ही क्यों है इसके अलावा और क्यों नही इससे कम भी होनी चाहिये थी,आदि बातें जनमानस के अन्दर अपना अपना रूप दिखाकर भ्रमित करती है। विद्या का अर्थ आगम का आगमन निगम से हुआ है,निगम का नाम सूर्य है और आगम का नाम शनि गुरु मंगल पृथ्वी चन्द्रमा शुक्र बुध है। आगम के सभी सिद्धान्त निगम के सिद्धान्तो पर निर्भर है। जैसे निगमाचार्यों ने सैषा त्रयी विद्या इत्यादि रूप से विद्या शब्द प्रयुक्त किया है,उसी तरह से आचार्योण ने विद्यासि सा भगवती इत्यादि रूप से आगम के लिये भी विद्या शब्द का प्रयोग किया है। इस विवेचना में विद्या के शब्द का अर्थ बताने की क्रिया है।     निगम में त्रयं ब्रह्म त्रयी विद्या त्रयी वेदा: इत्यादि रूप से ब्रह्म विद्या वेद तीनों को अभिन्नार्थक माना है। परमार्थ द्रष्टि से तीनों अभिन्न है । विश्व की नजर में भी तीनो अलग अलग है। शक्ति तत्व विद्या क्या महाविद्या से शब्द से लिया गया है । इसका उत्तर इन्ही तीनों के स्वरूप ज्ञान पर निर्भर है। अनन्त ज्ञानघन क्रियाघन अर्थघन तत्वविशेष का नाम ही अक्षर है ब्रह्म है। वह सर्वज्ञान मय है सर्वक्रियामय है सर्वार्थमय है। दूसरे शब्दों में वह अक्षरतत्व मन प्राण वांगमय है जैसे क्षर पुरुष का आलम्बन अक्षर पुरुष्है,इसलिये सबका आलम्बन अक्षरपुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध अव्यय पुरुष है। वह स्वयं ज्ञान क्रिया अर्थशक्ति रूप है। अव्यय की ज्ञानशक्ति को महसूस करने वाला प्राण है। अर्थ शक्ति का महसूस करने वाला वाक यानी वाणी है। इन तीन कलाओं के अतिरिक्त आनन्द विज्ञान नाम की दो कलायें और हैं। इन पांचो कलाओं में पांचवी वाककला उपनिषदों में अन्नब्रह्म नाम से प्रसिद्ध है। तैत्तिरेय उपनिषद में इन पांचों आनन्द विज्ञान मन प्राण अन्न ब्रह्माकोषों का विस्तार से निरूपण किया गया है। आनन्दादि पुरुष की पांच कलायें है,दूसरे शब्दों में वह अव्यय पंचकल है। पंचकलात्मक वह अव्यय पुरुष स्वयं शक्ति रूप है। सामान्ये सामन्याभाव: के अनुसार आनन्द मे आनन्द नही। विज्ञान में विज्ञान नही। मन में मन नही। प्राण में प्राण नही। वाक में वाक नही । जिसके अन्दर प्राण नही है और जिसका मन भी नही है तो क्रिया नही हो सकती है,अव्यय पुरुष न करता है,न लिप्त होता है,इसी भाव का निरूपण करती हुयी श्रुति कहती है- ॥न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तस्मश्चाभ्यधिकश्व द्रश्यते,पराभ्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ॥ इन्ही कारणों से हम अव्यय पुरुश को निर्धर्मक मानने के लिये तैयार है। अव्यय पुरुष है।पुरुष चेतन है,चिदात्मा है,ज्ञानमूर्तिहै,अतएव निष्क्रिय भी है। इसलिये क्रिया सापेक्ष सक्रिय विश्व की निर्माण प्रक्रिया से बहिर्भूत है,सृष्टि संसृष्टि है। संसर्ग व्यापार है,व्यापार क्रिया है,इसका उसमें अभाव है,अतएव वह अकर्ता है।अतएव पंचकलाव्य पुरुष प्राणरूप से क्रियाशून्य नही कहा जा सकता है। परन्तु कोरी क्रिया कुछ कर भी नही सकती है। क्रिया क्रियावान कर सकता है। अव्यय क्रियावान नही क्रियास्वरूप है। क्रियावान है वही पूर्वोक्त अक्षर पुरुष। यह अक्षर पुरुष ही अव्यक्त परा प्रकृति परमब्रह्म आदि नामों से प्रसिद्ध है। वह पुरुष इस प्रकृति के साथ समन्वित होता है। तत्तु समन्वयात (शारीरिकदर्शन व्याससूत्र) के अनुसार इस प्रकृति पुरुष के समनवय से ही विश्व रचना होती है। इस समन्वय से अव्यय की शक्तियां अक्षर में संक्रांत होजाती है। उसकी शक्तियों से अक्षर शक्तिमान बन जाता है। अतएव हम अक्षर को आनन्दवान विज्ञानवान मनस्वी क्रियावान अर्थवान मानने के लिये तैयार हैं। अक्षर शक्तिमान है,सक्रिय है एक बात अरु पूर्वोक्त अव्यय कलाओं में आनन्द प्रसिद्ध है,विज्ञान चित है मन प्राण वाक की समिष्ट सत है। सत चित आनन्द की समष्टि ही सच्चिदानन्द ब्रह्म है। अक्षर तीनों से युक्त है अतएव हम इसे अवश्य ही आनन्दवान विज्ञानवान कह स्कते है। आनन्दविज्ञान मुक्तिशाक्षी अव्यय है,प्रानवाक सृष्टि साक्षी अव्यय है,मद्यपतित उभयात्मकं मन: के अनुसार दोनों ओर जाता है,मुक्ति का सम्बन्ध आनन्द विज्ञान मनसे है,सृष्टि का सम्बन्ध मन प्राण वाक से है,अतएव सृष्टि साक्षी आत्मा को स वा एष आत्मा वांगमय: प्राणमयो मनोमय: इत्यादि रूप से मन: प्राणवांगमय ही बतलाया गया है। सृष्टिसाक्षी अव्यय में हमने ज्ञानघन मन क्रियाघन प्राण अर्थघन वाक की सत्ता बतलायी है,इन तीनों में ज्ञान कला का विकास स्वयं अव्यय पुरुष है। उसमें इसी कला की प्रधानता है,क्रिया का विकास अक्षर पुरुष है,अर्थ का विकास क्षर पुरुष है,अर्थप्रधान क्षर पुरुष भी निष्क्रिय है। अक्षर पुरुष एक मात्र क्रियाशील है। क्रिर्या करना एक मात्र अक्षर का ही धर्म है,अत: हम तीनों पुरुषों में से एक मात्र अक्षर को ही सृष्टि कर्ता मान सकते है। अव्यक्त अक्षर प्रकृति ही विश्व का प्रभव प्रतिष्ठा परायण है,इसी विज्ञान को लक्ष्य मे रखकर श्रुति कहती है- ॥ यदा सुदीप्तात पावकाद्विस्फ़ुलिंगा: सह्स्त्रश: प्रभवन्ते सरूपा:,तथाक्षराद्विविधा: सोम्य भावा: प्रजायन्ते तत्र चैवापि यन्ति ॥ (मुण्डक.२/१/१) ॥अव्यक्ताद्वयक्तय: सर्वा: प्रभवन्त्यहरागमे,रात्यागमे प्रत्नीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके॥ अव्यक्तादीन भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत,अव्यकनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥ (गीता २/२८) माना जाता है  कि प्रजापति यानी कुम्हार जमीन पर बैठकर समुदाय रूप से सर्वथा गतिशून्य अवयव रूप से सर्वथा गतिशील चक्र पर मिट्टी रखकर घडे का निर्माण किया करता है,इसी प्रकार अक्षर रूपी प्रजापति कुम्हार आनन्द विज्ञान मनोघन मुक्ति साक्षी अव्ययरूप धरातल पर बैठकर मन: प्राण वाग्घन सृष्टिसाक्षी अव्ययरूप चक्र पर क्षररूप मिट्टी से उत्तम त्रिलोकी रूप घट का निर्माण किया करता है। रामेन्द्र सिंह भदौरिया at 5:16 PM No comments: Post a Comment ‹ › Home View web version सोऽहम रामेन्द्र सिंह भदौरिया ऊँ श्री हरि कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने,प्रणत क्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नम: ॥ View my complete profile Powered by Blogger.

वेद तीन

vedicvoice स्वामी दयानंद की वेद भाष्य को दें भाग ९  drvivekaarya 6 years ago Advertisements   वेदों की विषय में प्रचलित कुछ भ्रांतियों का निवारण डॉ विवेक आर्य वेदों की विषय में कुछ ऐसी भ्रांतियां भी प्रचारित करी गयी हैं जो पाठकों को वेदों के विषय में शंका उत्पन्न कर भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर देती हैं. कुछ भ्रांतियों के जनक सायण, महीधर आदि के भाष्य हैं जबकि कुछ के जनक पाश्चात्य विद्वान जैसे मेक्समूलर, ग्रिफ्फिथ, ब्लूमफिल्ड आदि हैं. ऐसी कुछ भ्रांतियां इस प्रकार हैं १. क्या वेद तीन हैं और क्या अथर्ववेद बाद में सम्मिलित किया गया था? २. क्या वेदों की शाखाएं भी वेद हैं? ३. क्या यजुर्वेद में कृष्ण और शुक्ल यह दो भेद हैं? ४. क्या वेदों में पुनरुक्ति दोष हैं? ५. क्या वेदों में पुनर्जन्म का सिद्धांत विदित नहीं हैं? हम एक एक कर इन भ्रांतियों का निवारण करेगें. १. क्या वेद तीन हैं और क्या अथर्ववेद बाद में सम्मिलित किया गया था? संस्कृत वांग्मय में कई स्थानों पर ऐसा प्रतीत होता हैं की क्या वेद तीन हैं? क्यूंकि वेदों को त्रयी विद्या के नाम से पुकारा गया हैं और त्रयी विद्या में ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद इन तीन का ग्रहण किया गया हैं. उदहारण में शतपथ ब्राह्मण ६.१.१.८, शतपथ ब्राह्मण १०.४.२.२२, छान्दोग्य उपनिषद् ३.४.२, विष्णु पुराण ३.१६.१ परन्तु यहाँ चार वेदों को त्रयी कहने का रहस्य क्या हैं? इस प्रश्न का उत्तर चारों वेदों की रचना तीन प्रकार की हैं. वेद के कुछ मंत्र ऋक प्रकार से हैं, कुछ मंत्र साम प्रकार से हैं और कुछ मंत्र यजु: प्रकार से हैं. ऋचाओं के सम्बन्ध में ऋषि जैमिनी लिखते हैं पादबद्ध वेद मन्त्रों को ऋक या ऋचा कहते हैं (२.१.३५), गान अथवा संगीत की रीती के रूप में गाने वाले मन्त्रों को साम कहा जाता हैं (२.१.३६), और शेष को यजु; कहा जाता हैं. (२.१.३७) ऋग्वेद प्राय: पद्यात्मक हैं, सामवेद गान रूप हैं और यजुर्वेद मुख्यत: गद्य रूप हैं और इन तीनों प्रकार के मंत्र अथर्ववेद में मिलते हैं. इस प्रकार के रचना की दृष्टि से वेदों को त्रयी विद्या कहाँ गया हैं. इसका प्रमाण भी स्वयं आर्ष ग्रन्थ इस प्रकार से देते हैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद ये चारों वेद श्वास- प्रश्वास की भांति सहज भाव से परमात्मा ने प्रकट कर दिए थे- शतपथ ब्राह्मण १४.५.४.१० मैंने ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद ये चारों वेद, ये चारों वेद भी पढ़े हैं- छान्दोग्य उपनिषद् ७.१.२ और छान्दोग्य उपनिषद् ७.७.१ इसी प्रकार बृहदअरण्यक उपनिषद् (४.१२), तैत्रय उपनिषद् (२.३), मुंडक उपनिषद (१.१.५), गोपथ ब्राह्मण (२.१६), आदि में भी वेदों को चार कहाँ गया हैं. २. क्या वेदों की शाखाएं भी वेद हैं? पतंजलि ऋषि के महाभाष्य में ऋग्वेद की २१, यजुर्वेद की १०१, सामवेद की १००० और अथर्ववेद की ९ शाखायों का वर्णन आता हैं. जिनकी कुल संख्या ११३१ बनती हैं. स्वामी दयानंद ४ वेदों के अलावा ११२७ शाखाएँ मानते हैं. अब यह सभी शाखाएँ उपलब्ध नहीं हैं. ऋग्वेद की शाकल और बाष्कल, यजुर्वेद की वाजसनेयी मध्यनिन्दनी तथा काण्व शाखा,सामवेद की राणायनीय, जैमिनीय तथा कोथुम और अथर्ववेद की पैप्पलाद तथा शौनकीय शाखा उपलब्ध हैं. वेदों की शाखाओं का विशेष रूप से वर्णन करने की पीछे हमारा उद्देश्य वेदों की विषय में एक भ्रान्ति का समाधान करना हैं . वह भ्रान्ति हैं की असली वेद अब लुप्त हो चुके हैं अर्थात जो वेद अब विद्यमान हैं वे असली नहीं हैं. सत्य यह हैं की वेदों की शाखाएँ लुप्त हुई हैं नाकि वेद. वेद तो श्रुति परम्परा से सुरक्षित हैं इसलिए उनके लुप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता. वेदों की शाखाएँ परमेश्वर कृत नहीं अपितु ऋषि- मुनि कृत हैं जो की एक प्रकार से वेदों के व्याख्यान भर हैं. इस विषय में यह प्रमाण भी वेद केवल चार हैं की पुष्टि करते हैं- १. न्रसिंह पुर्वार्तापिनी उपनिषद् में कहा गया हैं की ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद चारों वेद अपने अंगों सहित तथा अपनी शाखाओं सहित चार पद बनते हैं (१.२) २. बृहज्जाबालोपनिषद में कहाँ गया हैं की जो इस बृहज्जाबालोपनिषद को नित्य पढता हैं वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद इन चारों को पढता हैं और इनके साथ ही शाखाओं और कल्पों को भी पढता हैं.८.५ अन्य प्रमाण भी इस तर्क की पुष्टि करते हैं जिससे यह सिद्ध होता हैं की वेद चार हैं और वेद की शाखाएँ उससे विभिन्न हैं. ३. क्या यजुर्वेद में कृष्ण और शुक्ल यह दो भेद हैं? स्वामी दयानंद के आगमन से पूर्व यजुर्वेद के दो भेद एक कृष्ण और एक शुक्ल हैं ऐसी मान्यता प्रचलित थी. यजुर्वेद के दो भेद कैसे हो गया इसके पीछे विष्णु पुराण के तृतीय अंक के चतुर्थ अध्याय के वेद विभक्ति नामक शीर्षक से यह वर्णन आता हैं. ऋषि वैशम्पायन का, देवरात का पुत्र याज्ञवल्क्य नामक एक शिष्य था जोकि बड़ा धर्मज्ञ और गुरु सेवापरायण था, एक बार किसी बात से नाराज होकर वैशम्पायन ने कहा की मेरे से पढ़े को त्याग दो. याज्ञवल्क्य ने योगविद्या से सब उलटी करके फैक दिया, रुधिर से सने हुए उन मंत्रो को कुछ शिष्यों ने तितर बन कर चुग लिया जिससे वे तैतिरीय कहलाये, बुद्धि की मलिनता से वे मंत्र कृष्ण हो गए. इसके पश्चात याज्ञवल्क्य ने सूर्य की आराधना करके उनसे शुक्ल यजुर्वेद के मंत्र प्राप्त किये जो शुक्ल कहलाये. इस कथा में अनेक अविश्वसनीय बातें हैं जैसे की कोई विद्या को वमन कर नहीं निकाल सकता, कोई तितर बन कर विद्या को नहीं चुग सकता, इसलिए यह एक गप मात्र हैं. वस्तुत: यजुर्वेद का नाम शुक्ल यजुर्वेद और तैतरीय संहिता का नाम कृष्ण यजुर्वेद होने का कारण कुछ और ही हैं. वह हैं इन दोनों की अपनी शुद्धता और अशुद्धता. मूल वेद शुक्ल यजुर्वेद ही हैं उसकी शुद्धता के कारण उसका नाम श्वेत अथवा निर्मल से दिया गया था जबकि तैतरीय संहिता में मिश्रण होने के कारण उसका नाम अशुद्ध अर्थात कृष्ण हो गया. कृष्ण यजुर्वेद में अनेक स्थानों पर यजुर्वेद के मन्त्रों के स्वरुप में परिवर्तन कर दिया गया हैं. कुछ के क्रम में परिवर्तन हैं (१.१.३), कुछ स्थानों पर एक मंत्र के अनेक मंत्र बना दिए गए हैं, कई स्थानों पर दो मंत्र का एक बना दिया गया हैं (१.१.३ ). इस प्रकार के परिवर्तन से यजुर्वेद के अपने शुद्ध रूप का लोप होने से ततित्र्य संहिता ही कृष्ण यजुर्वेद कहलाता हैं. इसलिए कृष्ण यजुर्वेद मान्य और प्रमाणिक नहीं हैं. ४. क्या वेदों में पुनरुक्ति दोष हैं? वेदों का स्वाध्याय करते हुए हमारा ध्यान इस तरफ जाता हैं की एक ही मंत्र को एक से अधिक वेदों में दोहराया गया हैं अथवा एक ही मंत्र में एक ही शब्द एक बार से अधिक आया हैं. अथर्ववेद के बीसवें कांड के १४३ सूक्तों का करीब ९५८ मन्त्रों में से कुंताप सूक्त के १४६ मन्त्रों को छोड़कर शेष सभी ऋग्वेद में भी हैं. इसी प्रकार सामवेद के १८७५ मन्त्रों में से १०४ मन्त्रों को छोड़ कर शेष सभी ऋग्वेद में भी हैं.लोग इसे पुनरुक्ति कह कर वेदों के रचियता का दोष सिद्ध करने का प्रयास करते हैं. निरुक्त के रचियता यास्काचार्य ने निरुक्त १०.२१.१५ में वेदों में पुनरुक्ति विषय पर विचार किया हैं. ऋग्वेद ४.५७.२ मंत्र में मधुमन्तं और मधुश्चुतम यह दो समानान्तर शब्द प्रयुक्त होने के कारण पुनरुक्ति प्रतीत होते हैं परन्तु इसका अर्थ होता हैं जो मधुयुक्त होगा वह मधु बरसाने वाला होगा. अर्थ के भाव से विषय स्पष्ट हो जाता हैं. इसी प्रकार ऋग्वेद २.३५.१० में हिरण्यरूप और हिरण्यसंद्र्क यह दो सामानांतर शब्दों का जो स्वर्ग जैसे सुंदर रूप वाला होगा वह स्वर्ग जैसा सुंदर दिखाई देने वाला होगा ही अर्थ किया हैं. ऋषि दयानंद नें वेदों का भाष्य करते हुए एक ही मंत्र में दिए गए एक ही शब्द के अलग अलग अर्थ किये हैं अथवा एक ही मंत्र के दुसरे वेद में भी प्रसंग अनुसार अलग अलग अर्थ किये हैं. यजुर्वेद के ३७.८ मंत्र में मख शब्द १५ बार प्रयुक्त हुआ हैं. इस शब्द का अर्थ स्वामी दयानंद ने ब्रहमचर्य रुपी यज्ञ, विद्या ग्रहण अनुष्ठान, ज्ञान, मनन, गार्हस्थ व्यवहार, गृह, गृहस्थकार्य संगतीकारण, सद व्यवहार सिद्धि, योग्याभ्यास, संग-उपांग योग तथा ऐश्वर्या प्रद यह अर्थ किये हैं.इस प्रकार एक शब्द के अनेक अर्थ प्रसंग अनुसार हो जाते हैं. एक अन्य उदहारण ॐ अग्नये नय सुपथा मंत्र जोकि यजुर्वेद में ५.३६, ७.४३, ४०.१६ तीन स्थानों पर आता हैं. स्वामी दयानंद हर स्थान पर उसका अर्थ विभिन्न विभिन्न किया हैं.इसका कारण प्रकरण भेद हैं. इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता हैं की पुनरुक्ति मन्त्रों के प्रकरण भेद से विभिन्न विभिन्न अर्थ हो जाते हैं नाकि यह वेदों के रचियता का दोष हैं. ५. क्या वेदों में पुनर्जन्म का सिद्धांत विदित नहीं हैं? कुछ पाश्चात्य विद्वानों की यह धारणा रही हैं की वेद पुनर्जन्म के सिद्धांत का समर्थन नहीं करते हैं.इसका एक कारण तो वेदों के अर्थो को सूक्षमता से नहीं समझना हैं और दूसरा कारण मुख्यत: रूप से सभी पाश्चात्य विद्वान ईसाई मत के थे इसलिए पूर्वाग्रह से ग्रसित होने के कारण चूँकि ईसाई मत वेदों में वर्णित कर्म फल व्यस्था और पुनर्जन्म को नहीं मानता इसलिए वेदों में भी पुनर्जन्म के न होने का समर्थन करते रहे. आज इस्लाम मत से सम्बन्ध रखने वाले अपने प्रचार माध्यमों से यहीं जोर देने पर लगे हुए हैं की वेदों में पुनर्जन्म के सिद्धांत का समर्थन नहीं हैं. स्वामी दयानंद अपने प्रसिद्द ग्रन्थ ऋग्वेददि भाष्यभूमिका में पुनर्जन्म के वेदों से स्पष्ट प्रमाण देते हैं. वे इस प्रकार हैं १. हे सुखदायक परमेश्वर आप कृपा करे पुनर्जन्म में हमारे बीच में उत्तम नेत्र आदि सब इन्द्रिया स्थापित कीजिये – ऋग्वेद ८.१.२३.६ २. परमेश्वर कृपा करके सब जन्मों में हमको सब दुःख निवारण करने वाली पथ्य रूप स्वस्ति को देवे- ऋग्वेद ८.१.२३.७ ३. परमेश्वर सब बुरे कामों और सब दुखों से पुनर्जन्म में दूर रखे- यजुर्वेद ४.१५ ४. हे जगदीश्वर आपकी कृपा से पुनर्जन्म में मन आदि ग्यारह इन्द्रिया मुझे प्राप्त हो – अथर्ववेद ७.६.६७.१ ५. जो मनुष्य पुनर्जन्म में धर्म आचरण करता हैं उस धर्म आचरण के फल से अनेक उत्तम शरीरों को धारण करता हैं- अथर्ववेद ५.१.१.२ ६. जीव पाप- पुण्य के आधार पर अगले जन्म में मनुष्य या पशु आदि बनते हैं- यजुर्वेद १९.४७ ७.इसी प्रकार अथर्ववेद १०.८.२७-२८, ऋग्वेद १.२४.१-२, अथर्ववेद ११.८.३३ में भी पुनर्जन्म के सिद्धांत का प्रतिपादन हैं. इस प्रकार वेदों की विषय में पुनर्जन्म के विषय में अनेक प्रमाण होने से इस भ्रान्ति का भी निवारण हो जाता हैं. 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महात्रिपुर सुन्दरी को श्री विद्या, षोडशी, ललिता, राज- राजेश्वरी, बाला पंचदशी अनेक नामों से जाना जाता है। वर देने के लिए सदा-सर्वदा तत्पर रहने वाली भगवती मां का श्रीविग्रह सौम्य और हृदय दया से पूर्ण है। जो इनका आश्रय लेते है, उन्हें इनका आशीर्वाद प्राप्त होता है। भगवती भैरवी के मुख्य मंत्र में तीन कूट अक्षर होने से इनका नाम ‘त्रिपुर-भैरवी‘ है साथ ही श्री भैरवी‘ को ‘विद्या-त्रयी‘ में प्रथम स्थान प्राप्त है। शाक्त-मतावलम्बी भैरवी की गणना दश महाविद्याओं में करते हैं। स्त्री-साधिकाओं को भी सामान्यत: ‘भैरवी‘ नाम से सम्बोधित किया जाता है। ‘ज्ञानार्णव तंत्र‘ में बताया है कि भगवती भैरवी त्रिविधा हैं- 1. बाला, 2. भैरवी, 3.सुन्दरी। इनके तीन स्वरूपों में से बाला और सुन्दरी। मां श्री बाला सुंदरी महाशक्ति जगदंबा का एक रूप है। ब्रह्म, विष्णु ओर रूद्र ये तीनों पुर जिसमें समाहित है, वह त्रिपुर मां बाला सुंदरी है सोलह कला संपन्न भगवती षोडशी के अन्तर्गत भी वर्णित हैं। ‘‘भैरवयामल और शक्ति लहरी’’ में आपकी उपासना का विस्तृत वर्णन मिलता है। ऋषि दुर्वासा आपके परम आराधक थे। आपकी उपासना ‘‘श्री चक्र’’ में होती है। आदि गुरू शंकरचार्य ने भी सौन्दर्य लहरी में त्रिपुर सुन्दरी श्री विद्या की स्तुति की है। भगवती के आशीर्वाद से साधक को भोग और मोक्ष दोनों सहज उपलब्ध हो जाते हैं। त्रिपुर भैरवी - का ध्यान इस प्रकार बताया गया है- उदय कालीन सहस्त्र सूर्य के समान कान्तिवाली, अरूणवस्त्र धारिणी, रक्तचन्दन, विलेपिनी, मालाधारिणी, कमलवत् , मुखमण्डल वाली, त्रिनेत्री, मन्दस्मिता देवी की मैं आराधना करता हूं।

महात्रिपुर सुन्दरी को श्री
विद्या, षोडशी, ललिता, राज-
राजेश्वरी, बाला पंचदशी अनेक
नामों से जाना जाता है। वर देने के लिए
सदा-सर्वदा तत्पर रहने वाली भगवती मां का
श्रीविग्रह सौम्य और हृदय दया से
पूर्ण है। जो इनका आश्रय लेते है, उन्हें
इनका आशीर्वाद प्राप्त होता है।
भगवती भैरवी के मुख्य मंत्र में तीन कूट अक्षर होने से इनका नाम ‘त्रिपुर-भैरवी‘
है साथ ही श्री भैरवी‘ को
‘विद्या-त्रयी‘ में प्रथम स्थान प्राप्त है।
शाक्त-मतावलम्बी भैरवी की गणना दश
महाविद्याओं में करते हैं। स्त्री-साधिकाओं को भी सामान्यत: ‘भैरवी‘ नाम से सम्बोधित किया जाता है। ‘ज्ञानार्णव तंत्र‘ में बताया है कि भगवती भैरवी त्रिविधा हैं-
1. बाला, 2. भैरवी, 3.सुन्दरी। इनके तीन
स्वरूपों में से बाला और सुन्दरी। मां श्री बाला
सुंदरी महाशक्ति जगदंबा का एक रूप
है। ब्रह्म, विष्णु ओर रूद्र ये तीनों पुर
जिसमें समाहित है, वह त्रिपुर मां
बाला सुंदरी है सोलह कला संपन्न भगवती षोडशी के अन्तर्गत भी वर्णित हैं। ‘‘भैरवयामल और शक्ति लहरी’’ में आपकी उपासना का
विस्तृत वर्णन मिलता है। ऋषि
दुर्वासा आपके परम आराधक थे।
आपकी उपासना ‘‘श्री चक्र’’ में
होती है। आदि गुरू शंकरचार्य ने भी
सौन्दर्य लहरी में त्रिपुर सुन्दरी श्री
विद्या की स्तुति की है। भगवती के
आशीर्वाद से साधक को भोग और
मोक्ष दोनों सहज उपलब्ध हो जाते हैं।
त्रिपुर भैरवी - का ध्यान इस
प्रकार बताया गया है-
उदय कालीन सहस्त्र सूर्य के
समान कान्तिवाली, अरूणवस्त्र
धारिणी, रक्तचन्दन,
विलेपिनी, मालाधारिणी,
कमलवत् , मुखमण्डल वाली,
त्रिनेत्री, मन्दस्मिता
देवी की मैं आराधना
करता हूं।

त्रयी विद्या

अपना ब्लॉग Search for: अगस्त्य मुनि और टिटहरी के अंडे! November 18, 2015, 4:00 PM IST संजीव कुमार मिश्रा in दिव्य ज्ञान | मेरी खबर सतयुग में एक टिटहरी समुद्र तट पे रहा करती थी ! एक समय समुद्र उस टिटहरी के दो अन्डो को बहा ले गया, टिटहरी ने सोचा इस महान पापी समुद्र ने मेंरे दोनों पुत्रो को अपने में रमण कर लिया है, अब मुझे इसे सबक सिखाना चाहिए , वह समुद्र को सबक सिखाने के लिए मिटटी के कणों को उसमे डालने लगी !   इतने में अगस्त्य मुनि वहाँ आ पहुंचे और टिटहरी से पूछा यह तू क्या कर रही है ? उसने कहा इस पापी समुद्र ने मेरे दोनों पुत्रो को हरण कर लिया है इसलिए मै इसको सबक सिखाना चाहती हूँ   अगस्त्य मुनि बोले यह अरे ! यह तू क्या कर रही है ? मै इस समुद्र को पान कर लेता हूँ कहते है अगस्त्य मुनि ने तीन आचमन किये और तीन आचमनों में समुद्र को शोषण कर लिया और अपने उपस्थ इन्द्रियों के द्वारा समुद्र को खारा (नमकीन) बना करके त्याग दिया और उन दोनों पुत्रो की रक्षा हो गई !   इसका मतलब यह है की संसार रूपी समुद्र में यह जीवात्मा रूपी अंडे आवागमन के चक्र में डूबते रहते है पर जब वेद ज्ञान प्रकाश यानि त्रयी विद्या, ज्ञान -कर्म – उपासना को तीन आचमन बना कर पान करता है तो वह इस संसार सागर को खारा जानकार इसका परित्याग कर के संसार सागर से पार हो जाता है ! डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं लेखक संजीव कुमार मिश्रा भारतीय नागरिक। COMMENTS अपना कॉमेंट लिखे सबसे चर्चित पोस्ट सुपरहिट पोस्ट 1. अशरात-ए-दीपक 2. क्या राहुल गांधी को लेकर बीजेपी का डर जायज है? 3. फील्डमार्शल जनरल रोमेल – भाग 20 4. सुधार हो या विकास, चाहो तो हो सकता है 5. इंसानियत - एक धर्म ( भाग - 41 ) टॉपिक से खोजें नेता भारत कर्तव्य इस्लाम नियम सरकार कविता अराजकता सिरसा मोनिका-गुप्ता देश सुधार समाज कार्टून चुनाव मोदी -अधिकार हरियाणा उपयोग दुरूपयोग अधिकार व्यंग्य ब्लाग कांग्रेस सुरक्षा नए लेखक और » हमें Like करें Copyright ©  2017  Bennett Coleman & Co. Ltd. All rights reserved. For reprint rights: Times Syndication Service

त्रयी विद्या

All World Gayatri Pariwar Books युगशक्ति गायत्री का... त्रिपदा गायत्री—ब्रह्म विद्या... 🔍 INDEX युगशक्ति गायत्री का अभिनव अवतरण त्रिपदा गायत्री—ब्रह्म विद्या की त्रिवेणी   |     | 14  |     |   READ SCAN गायत्री को त्रिपदा कहा गया है। अर्थात् तीन पैरों वाली। उसके तीन चरणों को सत्, रज, तम के—सत्यं शिवं सुन्दरम् के—उत्पादन, अभिवर्धन, परिवर्तन के—ब्रह्मा, विष्णु, महेश के रूप में अनेकों प्रतिपादनों, उपाख्यानों के माध्यम से शास्त्रकारों ने समझाया है। तीन लोक प्रख्यात हैं—भू लोक, भुवः लोक, स्वः लोक। इन्हीं को धरती-पाताल और आकाश अथवा स्वर्ग कहते हैं। यह लोक दृश्यमान नहीं अदृश्य हैं। पदार्थ से नहीं चेतना से बने हैं। भूलोक हाड़-मांस की काया को कहते हैं—भुवः लोक विचार संस्थान है और स्वः लोक भाव सम्वेदनाओं का उद्गम अन्तःकरण। गायत्री महामन्त्र में सन्निहित भूः, र्भुवः स्वः की व्याहृतियों को गायत्री का मूल माना गया है। इसके त्रिक् का तीन-तीन शब्दों के तीन चरणों में विकास हुआ है। भूः से गायत्री के आठ अक्षर वाले प्रथम चरण का विस्तार हुआ है। तत् सवितु वरेण्यं, इस प्रथम पाद में आठ अक्षर और तीन शब्द हैं। इसी प्रकार भुवः शब्द का विस्तार गायत्री के द्वितीय चरण में हुआ है—‘भर्गो देवस्य धीमहि’ में भी आठ अक्षर और तीन शब्द हैं। तीसरी व्याहृति ‘स्वः’ है। इससे तीसरा चरण बना। ‘धियो योनः प्रचोदयात्’ इसमें भी आठ अक्षर और तीन शब्द हैं। यों प्रथम सूत्र ओ म् में भी अ-उ-म् तीन अक्षर हैं। उनसे तीन व्याहृतियों की उत्पत्ति मानी गई है। बीज में वृक्ष का विशालकाय परिकर छिपा रहता है। शुक्राणु में पूरा मनुष्य छिपा बैठा रहता है। छोटी-सी माइक्रो फिल्म में विशालकाय ग्रन्थ अंकित हो जाता है। परमाणु में एक सौर-मण्डल ही समूचा ब्रह्माण्ड ही विद्यमान देखा जा सकता है। इसी प्रकार गायत्री मन्त्र में मनुष्य के शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक तीनों ही क्षेत्र केन्द्रित हैं। इनको सुविकसित बनाने की शिक्षाएं, प्रेरणाएं भी भरी पड़ी हैं। साथ ही वे दिव्य शक्तियां भी मौजूद हैं जो इन तीनों क्षेत्रों की विभूतियों एवं सम्पदाओं से—ऋद्धियों और सिद्धियों से—परिपूर्ण बना सके। त्रिपदा की व्याख्या संसार क्षेत्र में तीन ऋतुएं—तीन काल—तीन वय के रूप में भी होती है। जल, थल और नभ के रूप में इसकी व्याख्या होती है। चेतना क्षेत्र में त्रिपदा का आलोक मनुष्य को सज्जन, महामानव, और देवात्मा बनाता है। इन्हीं को सन्त, ऋषि और अवतार कहते हैं। विभूतियों के क्षेत्र में सरस्वती, लक्ष्मी और काली की चर्चा की जाती है। त्रिवेणी में गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है। रामायण के अनुसार इसमें मज्जन करने वाले ‘‘काक होंहि पिक—वकहु मराला’’ की स्थिति में बदल जाते हैं। आकृति यथावत् रहते हुए भी उनकी प्रकृति में काया-कल्प जैसा अन्तर आ जाता है। गायत्री का नाम त्रिपदा क्यों पड़ा? इसका सुविस्तृत वर्णन इन पंक्तियों में किया जाना कठिन है। उस तत्व ज्ञान की यथा समय चर्चा की जायगी। यहां तो इतना ही जान लेना पर्याप्त है कि नवयुग के अवतरण में त्रिपदा की क्या भूमिका हो सकती है? इस सन्दर्भ में यज्ञोपवीत के स्वरूप की चर्चा करना उचित है—उपनयन को गायत्री की मूर्तिमान प्रतिमा माना गया है। उसके नौ धागे—गायत्री के नौ शब्द हैं। तीन लड़ें—तीन चरण। तीन ग्रन्थियां—तीन व्याहृतियां। एक प्रणव—बड़ी ब्रह्म ग्रन्थि। देव संस्कृति की आत्मा को यज्ञोपवीत की प्रत्यक्ष प्रतिमा मानकर शरीर रूपी मन्दिर में उसकी धारणा-प्रतिष्ठापना कराई जाती है। कन्धा उत्तरदायित्व का-हृदय भावना का-कलेजा साहस का और पृष्ठ भाग कर्मठता का प्रतीक माना जाता है इन चारों अवयवों के ऊपर घुमाते हुए यज्ञोपवीत पहना जाता है और समझा जाता है कि इस महा मन्त्र में सन्निहित प्रेरणाओं से जीवन-क्रम को पूरी तरह जकड़ दिया गया है। तीन लड़ों में शारीरिक, मानसिक और सामाजिक क्षेत्र को समुन्नत बनाने वाले संकेत सूत्र हैं। गायत्री के प्रथम चरण को शारीरिक, दूसरे को मानसिक और तीसरे को सामाजिक सुव्यवस्था का मार्ग दर्शक कहा जा सकता है। नौ गुण प्रसिद्ध हैं। नौ धागों में उन नौ गुणों का मार्ग दर्शन भरा पड़ा है जो उपरोक्त तीनों ही जीवन पक्षों को समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाते हैं। भूतकाल में भारतीय नागरिक इन नौ गुणों से सुसम्पन्न बनते और देव मानव कहलाते थे। नवयुग का अवतरण उसी सतयुग के अनुरूप होगा। इसलिए आस्थाएं एवं परम्पराएं भी प्राचीन काल जैसी ही अपनानी पड़ेगी। शरीर, मन और अन्तःकरणों को उन्हीं महान् सद्गुणों में ढालना पड़ेगा, जिनकी प्रामाणिकता और उपयोगिता गौरव भरे अतीत में सुनिश्चित रूप से जानी जा चुकी है। गुण व्यवहार में प्रयुक्त होते हैं। तत्व दर्शन अन्तराल की आस्थाओं में प्रतिष्ठित रहता है और उसकी प्रेरणा से मनन संस्थान की विचारणा एवं काय कलेवर की गतिविधियां काम करती रहती हैं। गायत्री का तत्व दर्शन पक्ष तीन व्याहृतियों में सन्निहित है। भूः को आस्तिकता-भुवः को आध्यात्मिकता एवं स्वः को धार्मिकता कहा गया है। ब्रह्म विद्या का-विस्तार इसी क्षेत्र तक सीमित है। उसकी विवेचना में इन्हीं तीन प्रसंगों की चर्चा होती है। मार्ग दर्शन-व्यवहार पक्ष में-यज्ञोपवीत के माध्यम से जिन नौ गुणों की गरिमा समझाई गई है, उन्हें भी तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। शरीर क्षेत्र में—श्रम, व्यवस्था, संयम, मनःक्षेत्र में—विवेक, साहस, स्वावलम्बन। समाज क्षेत्र में—एकता, समता, सहकारिता। इन नौ सूत्रों के आधार पर ही व्यक्ति और समाज के आचार, व्यवहार का निर्धारण होता है। तत्व दर्शन का प्रयोजन आस्थाओं का निर्माण करना है। अध्यात्म आस्थाओं में आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता की त्रिवेणी का ऊपर की पंक्तियों में वर्णन हो चुका है। आस्थाएं ही व्यक्तित्व का मूल हैं। इन्हीं का स्तर व्यक्तित्व है। ‘‘श्रद्धा मयोयं पुरुष यो चच्छ्रद्धः स ए वास’’ की सूक्ति में यही बताया गया है कि व्यक्ति वही है जो उसकी श्रद्धा। श्रद्धा एवं आस्था का उच्चस्तरीय निर्माण ही नवयुग के सूत्रपात का शुभारम्भ है। मनुष्य में देवत्व के उदय की प्रक्रिया ही धरती पर स्वर्ग का अवतरण कर सकेगी। नवयुग के यही दो आधार हैं। उन्हें पूरा करने के लिए सर्व प्रथम मनुष्य के व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय बनाना होगा। इसके लिए उसके अस्तित्व का केन्द्र बिन्दु ही सम्भालना, सुधारना होगा। आस्थाओं का स्तर ऊंचा उठा देना ही वह कार्य है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति की उत्कृष्टता और प्रखरता में प्रगति हो सकती है और उसे तेजस्वी एवं यशस्वी बनने के अवसर पग-पग पर मिल सकते हैं। कहा जा चुका है कि त्रिपदा के आस्था क्षेत्र में प्रवेश कर पाने पर उसके अन्तःकरण में इन तीन विश्वासों का प्रादुर्भाव एवं परिपाक होने लगता है। गायत्री मन्त्र के व्याहृति भाग को ब्रह्म विद्या कहा गया है। भूः भुवः और स्वः को त्रयी विद्या के नाम से जाना जाता है। इन तीनों में प्रथम है—आस्तिकता। द्वितीय आध्यात्मिकता और तृतीय धार्मिकता। इन तीनों को भक्तियोग, ज्ञानयोग एवं कर्मयोग के अन्तर्गत भी गिना जाता है। उन्हीं की व्याख्या, श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा के रूप में सुविस्तृत विवेचन के साथ होती रहती है। इन समस्त परिचर्चाओं में गायत्री मूलक ब्रह्म विद्या को ही व्याख्या, विस्तार समझा जा सकता है। आस्तिकता का अर्थ है—ईश्वर विश्वास। ईश्वर विश्वास अर्थात् उसकी न्याय परायणता पर विश्वास-कर्मफल की सुनिश्चितता पर सघन आस्था भले-बुरे कर्मों का फल मिलने में विलम्ब होने से मनुष्य में सत्कर्मों की सुखद प्रतिक्रिया और कुकर्मों की परिणिति दुःखद दुर्गति में होने के तथ्य पर से डगमगाने लगती है। बाल बुद्धि को विलम्ब असह्य होता है। वह तुर्त बीजारोपण और फुर्त फलदार वृक्ष की अपेक्षा करती है। देर लगते ही बागवानी पर से उसकी रुचि हठ जाती है। हथेली पर सरसों न जमे तो बच्चे कृषि विज्ञान को ही चुनौती देने लगते हैं। आस्तिकता के सिद्धान्त ईश्वर को सर्वव्यापी और न्यायकारी होने का विश्वास दिलाते हैं और समझाते हैं कि देर तो होती है, पर अन्धेर नहीं है। इस मान्यता को अपनाने वाला न तो गुप्त पाप कर पाता है और न प्रकट में उसके लिए उसका दुस्साहस उभरता है। पुनर्जन्म-स्वर्ग-नरक की मान्यताएं भविष्य में कर्मफल मिलने का आश्वासन देती है। फलतः आस्तिकता से प्रभावित व्यक्ति की नैतिकता अक्षुण्ण बनी रहती है। व्यक्ति के जीवन परिष्कार में यह एक महती उपलब्धि है। इस विश्वास के कारण पतन के गर्त में गिराने वाले कदम ही लौह श्रृंखला से जकड़ जाते हैं और भविष्य अन्धकारमय बनने से बच जाता है। साथ ही सत्प्रयोजनों के प्रति भी उत्साह शिथिल नहीं होने पाता। किसान, विद्यार्थी, व्यापारी आदि सभी अपने परिश्रम का प्रतिफल पाने में मिलने वाली देरी लगते हुए भी विचलित नहीं होते फिर आस्तिकता की आस्था रहते हुए किसी मनुष्य को कर्मफल में विलम्ब होने से अधीरता क्यों होगी? परमात्मा और आत्मा के परस्पर मिलने की प्रतिक्रिया बिजली के ठण्डे-गरम तारों के मिलने पर उत्पन्न होने वाली चिनगारियों जैसी होती है। आत्मा में परमात्मा का अवतरण होते ही सद्भावना, सद्विचारणा एवं सत्प्रयत्नों की चिनगारियां उछलने लगती हैं। वर्षा ऋतु आने पर सर्वत्र हरियाली उग पड़ने की तरह सत्प्रवृत्तियों से समूचा जीवन क्षेत्र भर जाता है। भक्ति का अर्थ है—प्यार। ईश्वर भक्ति अर्थात् आदर्शों के प्रति अनन्य निष्ठा। ईश्वर भक्ति के माध्यम से किया गया प्रेम भावना के विकास विस्तार का अभ्यास जब परिपक्व होता है तो प्राणि मात्र के प्रति आत्मीयता की दिव्य सम्वेदनाएं विकसित होती हैं। फलतः हर किसी से केवल सद्व्यवहार का आचरण ही बन पड़ता है। ईश्वर के अवतरण, प्रसंगों में मनोयोग लगने से यह विश्वास जमता है कि धर्म की स्थापना और अधर्म के विनाश की प्रवृत्ति एक मात्र वह कसौटी है जिसके आधार पर मनुष्य से ईश्वर के अवतरण का अनुपात जाना जा सकता है। इष्टदेव की पूजा, अर्चा का तात्पर्य है—देवत्व की ओर अन्तरात्मा को उन्मुख और अग्रसर करना। किस सांचे में अपने को ढालना है इसका निर्धारण ही इष्टदेव का चयन एवं वरण है। विश्व-व्यापी चेतना में ईश्वर का दर्शन करना—विराट् दर्शन कहलाता है। इसका तात्पर्य है अपने विश्व ब्रह्माण्ड को परमात्मा की प्रत्यक्ष प्रतिमा मानना और प्राणियों के प्रति सदाचरण और पदार्थों के सदुपयोग का निरन्तर ध्यान रखना। ऐसे-ऐसे असंख्यों आस्था परक लाभ ईश्वर विश्वास के हैं। यदि सही रीति से सही आराधना—सही प्रयोजनों के लिए की जाय तो उसका भरपूर लाभ आस्तिक व्यक्ति को तथा समूचे समाज को मिलना सुनिश्चित है। त्रिपदा का दूसरा दार्शनिक है—आध्यात्मिकता। आध्यात्मिकता अर्थात्—अपने वास्तविक स्वरूप एवं उद्देश्य का ज्ञान। इसका उदय होते ही आत्मावलम्बन एवं आत्मगौरव की अनुभूति होती है। आत्मावलम्बन अर्थात् आत्म निर्भरता। आत्म-निर्माण का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर ओढ़ना। अपनी परिस्थितियों का कारण मनःस्थिति को मानना और बहिरंग क्षेत्र की प्रगति के लिए प्रयासों का आरम्भ आत्मिक क्षेत्र में अभीष्ट सत्प्रवृत्तियों को व्यवहार अभ्यास में उतारता। आत्म-निरीक्षण, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण एवं आत्म-विकास के चार अवलम्बन अपना कर आत्मिक प्रगति की सर्वांग पूर्ण व्यवस्था जुटाई जाती है। अपना दृष्टिकोण बदलने से परिस्थितियों के मूल्यांकन और उनसे निपटने के निर्धारण में होती रहने वाली भयंकर भूलों का सिलसिला बन्द हो जाता है। फलतः जीवन-क्रम में ऐसा बदलाव आता है मानो किसी ने काया-कल्प करके रख दिया हो। अपने को दरिद्र, अभावग्रस्त, हेय स्थिति में पड़ा हुआ मानना पूर्णतया सापेक्ष है। सम्पन्नों के साथ तुलना करने पर अपनी स्थिति विपन्नों जैसी लगती है और विपन्नों के साथ तोलने से लगता है अपनी जैसी सम्पन्नता भी बहुत कम भाग्यवानों को मिल पाती है। अपने अभावों को गिनते रहने और दूसरों के अपकारों को सोचते रहने से लगता है नरक में पड़े हैं। आशंकाओं, सन्देहों और कुकल्पनाओं से, मस्तिष्क भरे रहने से हर घड़ी यही लगता रहता है कि विपत्ति के बादल अब टूटे-तब टूटे। संसार दर्पण की तरह है इसमें प्रायः अपना ही प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है। अपने गुण, कर्म, स्वभाव की श्रेष्ठता और निकृष्टता ही बाहर का सहयोग और विरोध आमन्त्रित करती रहती है। मनुष्य अपने ही अन्तराल की प्रतिध्वनि चारों ओर गूंजती हुई सुनता है। अपनी ही विकृतियां भूत-पिशाच का रूप धारण करके डराती, धमकाती रहती हैं। युग परिवर्तन का श्रीगणेश ‘हम बदलेंगे युग बदलेगा’ के उद्घोष से आरम्भ होता है। इसमें व्यक्ति के बदलने से समाज बदलने की सम्भावना व्यक्त की गई है। मनःस्थिति की प्रतिक्रिया परिस्थिति के रूप में दृष्टिगोचर होने की बात कही गई है। इसे आत्म-निर्माण का अभियान भी कह सकते हैं। आध्यात्मिकता ही आत्मज्ञान है। आत्म-गौरव को अक्षुण्ण रखने वाला चिन्तन और कर्तृत्व बनाये रहने की इसमें प्रेरणा है। आत्मावलम्बन, स्वावलम्बन की अन्तःचेतना को जगाने की दिव्य प्रेरणा भी इसे समझा जा सकता है। त्रिवेणी की दूसरी धारा इस आध्यात्मिकता की तत्व दृष्टि को ही कहा गया है। तीसरी धारा है धार्मिकता। धर्म-निष्ठा अर्थात् कर्त्तव्य-परायणता है। अपने कृत्यों की, उद्देश्य की ईमानदारी-सम्बन्धित व्यक्ति के प्रति वफादारी और करने की प्रक्रिया में जिम्मेदारी का समावेश किया जाय तो ‘कर्म ही पूजा है’ का सिद्धान्त अक्षरशः सही सिद्ध हो सकता है। काम करते समय यह ध्यान रखा जाय कि इसमें आदर्शों का हनन एवं नीति मर्यादाओं का उल्लंघन तो नहीं होता। लोभ, मोह से प्रेरित होकर ऐसा कुछ तो नहीं किया जा रहा है, जिसके औचित्य पर उंगली उठाई जा सके। हर कृत्य ऐसा होना चाहिए जिससे आत्म-सन्तोष आत्म-गौरव बढ़ता हो और समाज का हित होता हो। धर्म मर्यादाओं का निर्धारण मनीषियों द्वारा उन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया हो। इनके परिपालन की निष्ठा अपनाई और सुदृढ़ बनाई जानी चाहिए। धर्म के दो पक्ष हैं—एक श्रेष्ठता का सम्वर्धन, दूसरा निकृष्टता का निराकरण। स्थापना एवं अभिवर्धन के लिए रचनात्मक प्रयास करने होते हैं और उन्मूलन के लिए असहयोग, विरोध एवं संघर्ष की नीति अपनानी होती है। भगवान के अवतारों में यह संस्थापन और उन्मूलन के दोनों ही तत्वों को समान महत्व दिया गया है। धर्म प्रेमी को जहां सदाचरण एवं परमार्थ का आदर्श अपनाना होता है वहां अनैतिकता, अवांछनीयता एवं मूढ़ मान्यता के अनाचार का डट कर विरोध भी करना पड़ता है। धर्म धारणा का ही एक अंग धर्म युद्ध भी है। अपने शरीर, मन और आत्मा के प्रति, परिवार और समाज के प्रति, ईश्वर और आदर्शों के प्रति, अपने कर्तव्य एवं उत्तरदायित्वों का अविचल भाव से पालन करते रहना धार्मिकता है। ब्रह्म विद्या का—गायत्री तत्व ज्ञान का तीसरा चरण यही धार्मिकता है। इसे त्रिपदा, त्रिवेणी की तीसरी धारा कहा गया है। मानवी आस्थाओं के निर्माण में इन तीनों तथ्यों की प्रतिष्ठापना अन्तःकरण में इतनी गहराई तक होनी चाहिए कि वे सघन विश्वासों के रूप में परिलक्षित होने लगें। लक्ष्य और व्यक्तित्व बन जायं। आकांक्षाएं इन्हीं से प्रेरित हों। युग शक्ति गायत्री का तत्व दर्शन इन्हीं तीन धाराओं में प्रवाहित होता है। व्यक्ति और समाज की अभिनव संरचना में आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता के तीनों ही तथ्यों का प्रयोग उपयोग करना होगा। जन-मानस का परिष्कार इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति कर सकने योग्य हो सकें, यही ध्यान में रखना होगा। गायत्री तत्व ज्ञान में इन्हीं त्रिविधि प्रेरणाओं का सघन समावेश है।   |     | 14  |     |   READ SCAN  Versions  HINDI युगशक्ति गायत्री का अभिनव अवतरण Scan Book Version HINDI युगशक्ति गायत्री का अभिनव अवतरण Text Book Version gurukulamFacebookTwitterGoogle+TelegramWhatsApp अखंड ज्योति कहानियाँ See More About Gayatri Pariwar Gayatri Pariwar is a living model of a futuristic society, being guided by principles of human unity and equality. It's a modern adoption of the age old wisdom of Vedic Rishis, who practiced and propagated the philosophy of Vasudhaiva Kutumbakam. Founded by saint, reformer, writer, philosopher, spiritual guide and visionary Yug Rishi Pandit Shriram Sharma Acharya this mission has emerged as a mass movement for Transformation of Era. Contact Us Address: All World Gayatri Pariwar Shantikunj, Haridwar India Centres Contacts Abroad Contacts Phone: +91-1334-260602 Email:shantikunj@awgp.org Subscribe for Daily Messages 60 in 0.07856297492981

गुह्य विद्या

गुप्तगायत्री का ही विस्तृत रूप होने के कारण श्रीविद्या भी अत्यन्त गहन व गुह्य विद्या है इसलिए इसको भी गुप्तगायत्री ही कहा गया है, इसके प्रत्येक बीज अक्षर मंत्र के रूप में अनंत गोपनीय रहस्य छुपे पड़े हैं जिसे हम शास्त्रार्थ, धर्मचर्चा अथवा विवेचना आदि से कदापि नहीं जान सकते हैं, इस परम गुह्य विद्या को मात्र गहन साधना के माध्यम से ही जान व प्राप्त कर सकते हैं, अन्यथा कदापि नहीं !!!
श्रीविद्या साधना दो प्रकार से की जाती है :- प्रथम प्रकार से इसकी साधना करने के लिए गुप्तगायत्री विधान का अनुसरण किया जाता है, जिसकी दीक्षा को केवल शरीर साध चुका साधक ही ग्रहण कर सकता है ! किसी भी गुप्तगायत्री में दीक्षित व उसकी समस्त साधना संपन्न कर चुके साधक से गुप्तगायत्री दीक्षा ग्रहण कर समस्त साधना संपन्न करते हुए श्रीविद्या के किसी भी कुल की स्वतन्त्र साधना संपन्न की जाती है ! (वर्तमान समय में गुप्तगायत्री की दीक्षा प्राप्त करना अत्यंत दुर्लभ है क्योंकि इसके वास्तविक उपासक बाजार में उपलब्ध नहीं हैं, इसके सभी उपासक केवल जम्मू, हिमांचल, उत्तराखण्ड आदि क्षेत्र के शीतल हिमालयी क्षेत्र में निवास करते हैं !)
ओर द्वितीय प्रकार से साधना करने के लिए किसी भी सम्प्रदाय परम्परानुसार श्रीविद्या में पूर्णदीक्षित व श्रीविद्या की उस कुल की समस्त साधना संपन्न कर चुके साधक से उसी कुलानुसार “षोडशाक्षरी विद्या” दीक्षा ग्रहण कर उस कुल की समस्त साधना संपन्न की जाती है !
गुप्तगायत्री द्वारा श्रीविद्या का विस्तार :- गुप्तगायत्री ही शक्ति कुलों, श्रीविद्या व महाविद्याओं का साधक के भीतर इस प्रकार से विस्तार करती है, यथा :-
अन्नमय कोष ---- त्रयाक्षरी विद्या
प्राणमय कोष ---- षडाक्षरी विद्या में विस्तार
मनोमय कोष ---- नवाक्षरी विद्या में विस्तार
विज्ञानमय कोष ---- द्वादशाक्षरी विद्या में विस्तार
आनंदमय कोष ---- पंचदशाक्षरी विद्या में विस्तार
(गुप्तगायत्री की दीक्षा के बाद साधना करते हुए साधक के अन्नमय कोष से प्राणमय कोष में प्रवेश व षडाक्षरि विद्या में विस्तार होने पर शरीर के अन्य कोषों में पंचदशाक्षरी के रूप में अपनी वृद्धि करते हुए साधक के आत्मतत्व को स्वयं में लीन कर लेने तक यह मूलविद्या अपना विस्तार स्वयं ही करती है, व इस मध्य गुरु की कोई भूमिका नहीं होती है, गुरु मात्र दृष्टा होता है और शिष्य कर्ता व दृष्टा मात्र होता है, तथा षडाक्षरि विद्या से लेकर पंचदशाक्षरी विद्या तक की दीक्षा नहीं हो सकती है क्योंकि यह पराम्बा का अपना स्वयं का विस्तार है जिसे वह स्वयं ही करती है !)
पंचदशाक्षरि विद्या में विस्तार संपन्न होने के बाद यह मूलविद्या हादी, कादी, सादी ओर वादी परमविद्याओं के रूप में इन चार श्रीकुल, कालीकुल, ताराकुल ओर त्रिपुराकुल के रूप में समायोजित हो जाती है, ओर यह मूलविद्या पुनः प्रत्येक कुल में प्रत्येक पुरुषार्थ के अनुरूप अपने कर्तव्य धारण करते हुए चार चार महाविद्याओं अर्थात कुल सोलह महाविद्याओं व उनके सोलह भैरवों के रूप में पुनः उत्पन्न होकर अपना विस्तार करती है तथा इसी समय पर यह पंचदशाक्षरी मूलविद्या कुलानुसार एक बीजाक्षर से युक्त होकर “षोडशाक्षरी विद्या” तथा चारों पुरुषार्थों को संपन्न करने में सक्षम कुलस्वामिनी की चार महाविद्या रूपी अवस्थाओं का समूह होने के कारण “श्रीविद्या” कहलाती है, और यहीं से इस मूलविद्या का “कुलानुसार श्रीविद्या दीक्षा” तथा “भोगानुसार महाविद्या दीक्षा” व साधना प्रकरण प्रारम्भ होता है, यथा :-
________________श्रीकुल_______________कालीकुल_______________ताराकुल_______________त्रिपुरा
धर्म – बालरूप - षोडशी__________________काली___________________तारा________________कामाक्षी
अर्थ – तरुण रूप - त्रिपुरसुन्दरी____________???____________________???__________________???
काम – प्रौढ़ा रूप - राजराजेश्वरी____________???____________________???__________________???
मोक्ष – वृद्धा रूप - ललिताम्बा_____________???____________________???__________________???
(गुप्तगायत्री द्वारा श्रीविद्या में प्रवेश अथवा सीधे श्रीविद्या की दीक्षा के बाद साधना करते हुए सन्यासी व गृहस्थ साधक को प्रथम पुरुषार्थ धर्म की बालरूपा महाविद्या शक्ति अपने नियन्त्रण व धर्म में स्थित करती है, इसके लिए वह अपने साधक के धर्म विरुद्ध सभी कर्मों व अवस्थाओं को अवरुद्ध करती है, इस मध्य पराम्बा अपने साधक के मन मस्तिष्क को ऐसी ऊर्जा से भर देती है कि वह साधक केवल धर्म का ही अनुसरण करता है ! तदुपरांत साधक के पुर्णतः धर्मनिष्ठ हो जाने पर बालरूपा महाविद्या शक्ति अपने साधक को द्वितीय पुरुषार्थ अर्थ की तरुणीरूपा महाविद्या शक्ति को अग्रसारित करती है जहाँ द्वितीय पुरुषार्थ अर्थ की महाविद्या शक्ति अपने साधक को धर्म के अधीन ही अर्थोपार्जन के अनेक मार्ग बनाकर सन्यासी को पूर्ण तृप्ति व गृहस्थ साधक को असीमित अन्न, धन से परिपूर्ण कर तृतीय पुरुषार्थ काम की प्रौढ़रूपा महाविद्या शक्ति को अग्रसारित करती है जहाँ तृतीय पुरुषार्थ काम की महाविद्या शक्ति अपने साधक को धर्म व अर्थ से परिपूर्ण रखते हुए सन्यासी को इन्द्रिय, तत्व व अवस्थाओं पर तथा गृहस्थ को भौतिक शासन सत्ता सहित असीमित सुख भोगों को प्रदान कर चतुर्थ पुरुषार्थ मोक्ष की वृद्धारूपा महाविद्या शक्ति को अग्रसारित करती है जहाँ वह मोक्ष की स्वामिनी अपने सन्यासी व गृहस्थ साधक को सदैव के लिए स्वयं में समाहित कर लेती है, इसमें भी गृहस्थ को यह सौभाग्य मृत्यु के समय और सन्यासी को जीवित रहते हुए ही प्राप्त हो जाता है ! इसका प्रथम चरण पूर्ण होने के बाद शेष तीन चरणों में गुरु की कोई भूमिका नहीं होती है, गुरु मात्र दृष्टा होता है और शिष्य कर्ता व दृष्टा मात्र होता है, क्योंकि धर्म में स्थित होने के बाद के तीनों चरणों में पराम्बा द्वारा अपने साधक को स्वयं में लीन कर लेने तक की क्रिया को पराम्बा स्वयं ही संपन्न करती है !)
इन चार कुलों में षोडशी, तारा, काली, त्रिपुरसुन्दरी, त्रिपुरभैरवी, मातंगी, ललिताम्बा, भुवनेश्वरी, राजराजेश्वरी, छिन्नमस्ता, बगलामुखी, कामाक्षी, आनंदभैरवी, धूमावती, उन्मत्त्भैरवी और त्रिपुरा आदि सोलह महाविद्याएँ हैं ! इसके उपरान्त यह सोलह महाविद्याएँ अपनी आठ आठ नायिकाओं को उत्पन्न करती हैं जो कि इनके कुल की देवियाँ कहलाती हैं जैसे :- तारा की- नीलतारा, उग्रतारा आदि, व काली की- दक्षिण काली, जयंती काली आदि, ओर चार चार योगिनियों को उत्पन्न करती हैं, जो कि चौंसठ योगिनी कहलाती हैं !
श्रीविद्या के इन चारों कुलों में कुलसाधना हेतु कुलानुसार बीजयुक्त एक ही षोडशाक्षरी मन्त्र होता है, जबकि भोग साधना (क्रमदीक्षा) में प्रत्येक महाविद्या का अपना पृथक पृथक मन्त्र होता है ! श्रीविद्या के इन चार कुलों में अपने साधक को श्रीविद्या साधना के नियमानुसार धर्म में स्थित करके अग्रिम दीक्षा से संपन्न कर अर्थार्जन हेतु अग्रसारित करने वाली बालस्वरुपा – षोडशी, काली, तारा ओर कामाक्षी होती हैं, और श्रीविद्या साधना के नियमानुसार धर्म, अर्थ व काम की साधना संपन्न कर चुके अपने साधक को अन्त में मोक्ष प्रदान करके स्वयं में समाहित करने वाली वृद्धास्वरुपा – ललिताम्बा, धूमावती, भुवनेश्वरी ओर त्रिपुरा होती हैं !
श्रीविद्या के सम्प्रदाय:- गुप्तगायत्री साधना को करने वाला साधक सृष्टि, शरीर व आत्मा के असंख्य रहस्यों को आत्मसात करते हुए श्रीविद्या के क्रमशः चारों कुलों की सम्पूर्ण चारों अवस्थाओं की कुलोपासना करते हुए निर्द्वंद होकर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष आदि पुरुषार्थों को प्राप्त करता है ! तथा यह साधक क्रमशः चारों कुलों की सम्पूर्ण चारों अवस्थाओं की कुलोपासना संपन्न करने पर श्रीविद्या के किसी भी कुल की कुलदीक्षा, अथवा भोग दीक्षा प्रदान करने हेतु स्वतन्त्र व सक्षम होता है ! तथा श्रीविद्या के नए सम्प्रदाय का प्रवर्तक होता है और इस सम्पूर्ण क्रम को अभी तक केवल शिव, कुबेर, ह्यग्रीव, लोपामुद्रा, मन्मथ, नन्दिकेश्वर, आनंदभैरव ही पूर्ण कर पाए हैं, जिनमें से ह्यग्रीव, लोपामुद्रा, नन्दिकेश्वर ओर आनंदभैरव सम्प्रदाय ही वर्तमान में शेष हैं !
श्रीविद्या की परम्पराएं :- गुप्तगायत्री साधना को करने वाला साधक शरीर व आत्मा के असंख्य रहस्यों को आत्मसात करते हुए श्रीविद्या के किसी भी एक कुल की सम्पूर्ण चारों अवस्थाओं की कुलोपासना करते हुए निर्द्वंद होकर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष आदि चारों पुरुषार्थों को प्राप्त कर पराम्बा में विलीन हो जाता है ! तथा यह साधक अपने द्वारा साधित एक कुल की सम्पूर्ण चारों अवस्थाओं की कुलोपासना संपन्न करने पर श्रीविद्या के अपने द्वारा साधित कुल की कुलदीक्षा, अथवा भोग दीक्षा प्रदान करने हेतु स्वतन्त्र व सक्षम होता है ! तथा श्रीविद्या की नई परम्परा का प्रवर्तक होता है न की सम्प्रदाय का प्रवर्तक, और इस सम्पूर्ण क्रम को अभी तक केवल शिव, मनु, चन्द्र, कुबेर, ह्यग्रीव, लोपामुद्रा, मन्मथ, अग्नि, सूर्य, अगस्त, स्कन्द, दुर्वासा, कामराज, कपिल मुनि, नन्दिकेश्वर, आनंदभैरव व आदि शंकराचार्य ही पूर्ण कर पाए हैं, जिनमें से ह्यग्रीव, लोपामुद्रा, कपिलमुनि, नन्दिकेश्वर, आनंदभैरव और आदि शंकराचार्य परम्पराएं ही वर्तमान में शेष हैं !
कुल साधना (श्रीविद्या पूर्णदीक्षा) :- श्रीविद्या के किसी भी एक कुल, सम्प्रदाय व परम्परानुसार पूर्णदीक्षित हुए साधक द्वारा श्रीविद्या के अपने कुल की सम्पूर्ण चारों अवस्थाओं की कुलोपासना करते हुए निर्द्वंद होकर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष आदि चारों पुरुषार्थों को प्राप्त कर पराम्बा में विलीन हो जाता है ! तथा यह साधक भी अपने कुल की सम्पूर्ण चारों अवस्थाओं की कुलोपासना संपन्न करने पर श्रीविद्या के अपने द्वारा साधित कुल की कुलदीक्षा, अथवा भोग दीक्षा प्रदान करने हेतु स्वतन्त्र व सक्षम होता है ! इस विधान को दुर्वासा ऋषि, पुण्यानंद नाथ, अमृतानन्द नाथ, भास्करानन्द नाथ, उमानन्द नाथ, आदि शंकराचार्य, वामाक्षेपा, महातपा, निगमानन्द जी आदि अनेक सिद्ध साधकों ने पूर्ण किया है !
भोग साधना (क्रमदीक्षा) व क्रमदीक्षा की परम्पराएं :- श्रीविद्या के किसी भी एक कुल, सम्प्रदाय व परम्परा में धर्म, अर्थ व काम में से किन्ही एक या दो की अभिलाषा पूर्ति के निमित्त श्रीविद्या की किन्ही एक या दो महाविद्याओं में दीक्षित हुआ साधक वह महाविद्या साधना संपन्न करने पर केवल धर्म, अर्थ, या काम को ही प्राप्त करने बाद अपने कर्मों को यहीं पर भोगता रहता है, क्योंकि धर्म के साथ अर्थ व काम भी प्राप्त हो जाए यह तो असम्भव नहीं, और धर्म के बिना प्राप्त अर्थ या काम के मद से उत्पन्न हुए अहं से धर्म बचा रह जाए यह सम्भव ही नहीं है, तो मोक्ष क्या आम के पेड़ पर लटका हुआ फल है जो गए और धन, बल से वो पेड़ ही अधिग्रहण कर लेंगे !!!
इस साधना का साधक अपने द्वारा साधित महाविद्या की साधना संपन्न करने पर अपने द्वारा साधित महाविद्या की भोग दीक्षा ही प्रदान करने हेतु स्वतन्त्र व सक्षम होता है ! इस विधान को परशुराम, दत्तात्रेय, सहजानन्द नाथ, भगानन्द नाथ, भास्करानन्द नाथ, निजात्मानंद नाथ, उमानन्द नाथ, आदि शंकराचार्य, वामाक्षेपा, निगमानन्द जी आदि अनेक सिद्ध साधकों ने पूर्ण किया है, जिसमें श्रीकुल की दत्तात्रेय परम्परा व ताराकुल की वामाक्षेपा परम्परा सर्वाधिक प्रचलन में है !
गुप्तगायत्री, कुलसाधना (पूर्णदीक्षा) व भोग साधना (क्रमदीक्षा) तक के विधान को "श्रीविद्या साधना" ही कहा जाता है ! तथा इसकी दीक्षा व साधना या तो गुप्तगायत्री मूलविद्या में हो सकती है (जो कि वर्तमान में दुर्लभ है) अथवा श्रीविद्या कुलानुसार बीजाक्षर से युक्त “षोडशाक्षरी श्रीविद्या” के रूप में हो सकती है, अन्यथा षडाक्षरि विद्या से लेकर पंचदशाक्षरी विद्या तक की दीक्षा कदापि नहीं हो सकती है, क्योंकि यह पराम्बा का त्रयाक्षरी विद्या से अपना स्वयं का विस्तार है जिसे वह स्वयं ही पूर्ण करती है, इसलिए षडाक्षरि विद्या से लेकर पंचदशाक्षरी विद्या तक की दीक्षा तो पराम्बा स्वयं भी नहीं दे सकती हैं, फिर हम जैसे अन्न्पौषित जीवों की ऐसा करने की क्षमता कैसे हो सकती है ?
(उपरोक्त में एक कुल श्रीकुल व दो अवस्थाओं की स्थिति को यहाँ स्पष्ट लिख दिया गया है, शेष तीन कुल व दो अवस्थाओं को यहाँ स्पष्ट करना अनिवार्य नहीं है, क्योंकि जो अन्य कुल व अवस्था के ज्ञाता हैं उनको तो ज्ञात ही है, और जिनको ज्ञात नहीं है वह कृपया अपने गुरुदेव से यह ज्ञान लें, अन्यथा यहाँ पढ़ पढ़ कर सभी श्रीविद्या के प्रवक्ता और रैकी हीलर बन जायेंगे और यह गूढ़ विद्या रैकी और मनोरंजन का केंद्र बन जाएगी !)
यदा कदा यह भी देखा व सुना जाता है कि कुछ महापुरुष गुप्तगायत्री व श्रीविद्या की दीक्षा के नाम पर पंचदशाक्षरी, भोग साधना (क्रमदीक्षा) व षोडशी महाविद्या के त्रयाक्षरी मन्त्र की दीक्षा देते हैं, ऐसे महापुरुषों को चाहिए कि वह अपने व अपने शिष्य समूह के जीवन व भविष्य को ध्यान में रखते हुए पहले अपने गुरु से स्वयं “षोडशाक्षरी विद्या” को विधिवत धारण करके उसकी साधना संपन्न करनी चाहिए तदुपरांत अपने शिष्य समूह को यह परम श्रेष्ठ विद्या प्रदान करनी चाहिए, अन्यथा अपनी अपरिपक्वता, प्रतिद्वंदी व आलोचक विध्वंसक तन्त्र के ज्ञान तथा भौतिक समृद्धि के मद में आकर अपने व अपने शिष्य समूह के जीवन व भविष्य को अपनी विलासिता में व्यय नहीं करना चाहिए !
विशेष तथ्य यह भी है कि जो विवेकवान साधक अपना कल्याण चाहते हैं वह कुलोपासना सम्पन्न कर सभी भोगों को भोग लेते हैं और पूर्ण निवृत भी हो जाते हैं ! और जिनको सही मार्गदर्शन नहीं मिलता है अथवा जो सही मार्गदर्शन मिलने पर भी अहंकार की उपासना ही करना चाहते हैं वह साधक या तो भोग साधना (क्रमदीक्षा) को प्राप्त कर उसके भोगों में अपने सत्कर्मों की तिलांजली करते हैं, या फिर महाविद्याओं और उनकी नायिकाओं व योगिनियों अथवा अन्य अनेक पराशक्तियों की शक्तियों का अपने स्वार्थ, धन, अहंकार, बैर, पद, प्रतिष्ठा आदि के लिए मारण, प्रताड़न, दमन, उच्चाटन, विद्वेषण आदि में प्रयोग कर अपनी अनेक जन्मों के लिए दुर्गति होने की नींव ही मजबूत करते हैं और बात करते हैं कल्याण की !!! डंडा जिसके हाथ में हो वह किसी को डंडा मारे तो यह कर्म डंडे का तो नहीं होगा ? यह कर्म तो डंडा मारने वाले का ही होता है, ठीक उसी प्रकार उन पराशक्तियों की शक्ति, तन्त्र या प्रभाव रूपी डंडा जिसके हाथ में है वो किसी को वह शक्ति या तन्त्र रूपी डंडा मारे तो वह कर्म तो डंडा मारने वाले का ही होगा, यह कर्म मेरा या किसी और का कर्म तो नहीं बन जायेगा !!! यह इसलिए लिखा गया है क्योंकि कुछ तन्त्र व ऐन्द्रजालिक चमत्कारों के सहारे पर सिद्धगुरु कहलाने वाले महापुरुष यह तन्त्र रूपी डंडा मारने की क्रिया को ही वास्तविक और सच्ची शक्ति उपासना का आवरण दिए हुए हैं !