शनिवार, 28 अक्टूबर 2017

सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा

प्रिय मित्रों ,

आप सभी का प्रातःकाल की बेला में ह्रदय से नमन व सुप्रभाभिनन्दनम् !

आज सोमवार, ८ मई २०१७ का दिन आप सभी लिए हितकारी, मंगलमय व शुभ हो, ये ईश्वर से सदैव प्रार्थना करता हूँ.

जिन मित्रों ने महान ग्रन्थ रामचरितमानस को नहीं पढ़ा है, वे इन पोस्टों को अवश्य पढ़े ये अनुरोध है और जिन मित्रों ने इस ग्रन्थ को पूरा पढ़ लिया है उनके लिए तो ये रिफ्रेशर ही होगा. आनंद दोनों में है.

सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा. दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा.
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा. तब भव मूल भेद भ्रम नासा.

'सोऽहमस्मि' ( वह ब्रह्म मैं हूँ ) यह जो अखंड ( तैलधारावत्‌ कभी न टूटने वाली ) वृत्ति है, वही ( उस ज्ञानदीपक की ) परम प्रचंड दीपशिखा ( लौ ) है। इस प्रकार जब आत्मानुभव के सुख का सुंदर प्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रम का नाश हो जाता है,

प्रबल अबिद्या कर परिवारा. मोह आदि तब मिटइ अपारा.
तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा. उर गृहँ बैठि ग्रंथि निरुआरा.

और महान बलवती अविद्या के परिवार मोह आदि का अपार अंधकार मिट जाता है. तब वही ( विज्ञानरूपिणी ) बुद्धि ( आत्मानुभव रूप ) प्रकाश को पाकर हृदय रूपी घर में बैठकर उस जड़ चेतन की गाँठ को खोलती है.

छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई. तब यह जीव कृतारथ होई.
छोरत ग्रंथ जानि खगराया. बिघ्न नेक करइ तब माया.

यदि वह ( विज्ञान रूपिणी बुद्धि ) उस गाँठ को खोलने पावे, तब यह जीव कृतार्थ हो, परंतु हे पक्षीराज गरुड़ जी ! गाँठ खोलते हुए जानकर माया फिर अनेकों विघ्न करती है.

रिद्धि-सिद्धि प्रेरइ बहु भाई. बुद्धिहि लोभ दिखावहिं आई.
कल बल छल करि जाहिं समीपा. अंचल बात बुझावहिं दीपा.

हे भाई ! वह बहुत सी ऋद्धि-सिद्धियों को भेजती है, जो आकर बुद्धि को लोभ दिखाती हैं और वे ऋद्धि-सिद्धियाँ कल ( कला ), बल और छल करके समीप जाती और आँचल की वायु से उस ज्ञान रूपी दीपक को बुझा देती हैं.

होइ बुद्धि जौं परम सयानी. तिन्ह तन चितव न अनहित जानी.
जौं तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी. तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी.

यदि बुद्धि बहुत ही सयानी हुई, तो वह उन ( ऋद्धि-सिद्धियों ) को अहितकर समझकर उनकी ओर ताकती नहीं. इस प्रकार यदि माया के विघ्नों से बुद्धि को बाधा न हुई, तो फिर देवता उपाधि ( विघ्न ) करते हैं.

इंद्री द्वार झरोखा नाना. तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना.
आवत देखहिं बिषय बयारी. ते हठि देहिं कपाट उघारी.

इंद्रियों के द्वार हृदय रूपी घर के अनेकों झरोखे हैं. वहाँ-वहाँ ( प्रत्येक झरोखे पर ) देवता अड्डा जमाकर बैठे हैं. ज्यों ही वे विषय रूपी हवा को आते देखते हैं, त्यों ही हठपूर्वक किवाड़ खोल देते हैं.

जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई. तबहिं दीप बिग्यान बुझाई.
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा. बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा.

सज्यों ही वह तेज हवा हृदय रूपी घर में जाती है, त्यों ही वह विज्ञान रूपी दीपक बुझ जाता है. गाँठ भी नहीं छूटी और वह ( आत्मानुभव रूप ) प्रकाश भी मिट गया. विषय रूपी हवा से बुद्धि व्याकुल हो गई अर्थात सारा किया-कराया चौपट हो गया.

इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई. बिषय भोग पर प्रीति सदाई.
बिषय समीर बुद्धि कत भोरी. तेहि बिधि दीप को बार बहोरी.

इंद्रियों और उनके देवताओं को ज्ञान स्वाभाविक ही नहीं सुहाता, क्योंकि उनकी विषय-भोगों में सदा ही प्रीति रहती है और बुद्धि को भी विषय रूपी हवा ने बावली बना दिया. तब फिर दोबारा उस ज्ञान दीप को उसी प्रकार से कौन जलावे ?

तब फिरि जीव बिबिधि बिधि पावइ संसृति क्लेस.
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस.

इस प्रकार ज्ञान दीपक के बुझ जाने पर तब फिर जीव अनेकों प्रकार से संसृति ( जन्म-मरणादि ) के क्लेश पाता है. हे पक्षीराज ! हरि की माया अत्यंत दुस्तर है, वह सहज ही में तरी नहीं जा सकती.

कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन बिबेक.
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक.

ज्ञान कहने में कठिन, समझने में कठिन और साधने में भी कठिन है. यदि घुणाक्षर न्याय से ( संयोगवश ) कदाचित्‌ यह ज्ञान हो भी जाए, तो फिर उसे बचाए रखने में अनेकों विघ्न हैं.

ग्यान पंथ कृपान कै धारा. परत खगेस होइ नहिं बारा.
जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई. सो कैवल्य परम पद लहई.

ज्ञान का मार्ग कृपाण की धार के समान है. हे पक्षीराज ! इस मार्ग से गिरते देर नहीं लगती. जो इस मार्ग को निर्विघ्न निबाह ले जाता है, वही कैवल्य ( मोक्ष ) रूप परमपद को प्राप्त करता है.

अति दुर्लभ कैवल्य परम पद. संत पुरान निगम आगम बद.
राम भजत सोइ मुकुति गोसाईं. अनइच्छित आवइ बरिआईं.

संत, पुराण, वेद और तंत्र आदि शास्त्र सब यह कहते हैं कि कैवल्य रूप परमपद अत्यंत दुर्लभ है, किंतु हे गोसाईं ! वही अत्यंत दुर्लभ मुक्ति श्री रामजी को भजने से बिना इच्छा किए भी जबर्दस्ती आ जाती है.

जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई. कोटि भाँति कोउ करै उपाई.
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई. रहि न सकइ हरि भगति बिहाई.

जैसे स्थल के बिना जल नहीं रह सकता, चाहे कोई करोड़ों प्रकार के उपाय क्यों न करे. वैसे ही, हे पक्षीराज ! सुनिए, मोक्षसुख भी श्री हरि की भक्ति को छोड़कर नहीं रह सकता.

अस बिचारि हरि भगत सयाने. मुक्ति निरादर भगति लुभाने.
भगति करत बिनु जतन प्रयासा. संसृति मूल अबिद्या नासा.

ऐसा विचार कर बुद्धिमान हरि भक्त भक्ति पर लुभाए रहकर मुक्ति का तिरस्कार कर देते हैं. भक्ति करने से संसृति ( जन्म-मृत्यु रूप संसार ) की जड़ अविद्या बिना ही यंत्र और परिश्रम के अपने आप वैसे ही नष्ट हो जाती है,

भोजन करिअ तृपिति हित लागी. जिमि सो असन पचवै जठरागी.
असि हरि भगति सुगम सुखदाई. को अस मूढ़ न जाहि सोहाई.

जैसे भोजन किया तो जाता है तृप्ति के लिए और उस भोजन को जठराग्नि अपने आप बिना हमारी चेष्टा के पचा डालती है, ऐसी सुगम और परम सुख देने वाली हरि भक्ति जिसे न सुहावे, ऐसा मूढ़ कौन होगा ?

सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि.
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि.

हे सर्पों के शत्रु गरुड़ जी ! मैं सेवक हूँ और भगवान मेरे सेव्य हैं, इस भाव के बिना संसार रूपी समुद्र से तरना नहीं हो सकता. ऐसा सिद्धांत विचारकर श्री रामचंद्रजी के चरण कमलों का भजन कीजिए.

जो चेतन कहँ जड़ करइ जड़हि करइ चैतन्य.
अस समर्थ रघुनायकहि भजहिं जीव ते धन्य.

जो चेतन को जड़ कर देता है और जड़ को चेतन कर देता है, ऐसे समर्थ श्री रघुनाथ जी को जो जीव भजते हैं, वे धन्य हैं.

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