शनिवार, 28 अक्टूबर 2017

गुप्तगायत्री का ही विस्तृत रूप होने के कारण श्रीविद्या

गुप्तगायत्री का ही विस्तृत रूप होने के कारण श्रीविद्या भी अत्यन्त गहन व गुह्य विद्या है इसलिए इसको भी गुप्तगायत्री ही कहा गया है, इसके प्रत्येक बीज अक्षर मंत्र के रूप में अनंत गोपनीय रहस्य छुपे पड़े हैं जिसे हम शास्त्रार्थ, धर्मचर्चा अथवा विवेचना आदि से कदापि नहीं जान सकते हैं, इस परम गुह्य विद्या को मात्र गहन साधना के माध्यम से ही जान व प्राप्त कर सकते हैं, अन्यथा कदापि नहीं !!!
श्रीविद्या साधना दो प्रकार से की जाती है :- प्रथम प्रकार से इसकी साधना करने के लिए गुप्तगायत्री विधान का अनुसरण किया जाता है, जिसकी दीक्षा को केवल शरीर साध चुका साधक ही ग्रहण कर सकता है ! किसी भी गुप्तगायत्री में दीक्षित व उसकी समस्त साधना संपन्न कर चुके साधक से गुप्तगायत्री दीक्षा ग्रहण कर समस्त साधना संपन्न करते हुए श्रीविद्या के किसी भी कुल की स्वतन्त्र साधना संपन्न की जाती है ! (वर्तमान समय में गुप्तगायत्री की दीक्षा प्राप्त करना अत्यंत दुर्लभ है क्योंकि इसके वास्तविक उपासक बाजार में उपलब्ध नहीं हैं, इसके सभी उपासक केवल जम्मू, हिमांचल, उत्तराखण्ड आदि क्षेत्र के शीतल हिमालयी क्षेत्र में निवास करते हैं !)
ओर द्वितीय प्रकार से साधना करने के लिए किसी भी सम्प्रदाय परम्परानुसार श्रीविद्या में पूर्णदीक्षित व श्रीविद्या की उस कुल की समस्त साधना संपन्न कर चुके साधक से उसी कुलानुसार “षोडशाक्षरी विद्या” दीक्षा ग्रहण कर उस कुल की समस्त साधना संपन्न की जाती है !
गुप्तगायत्री द्वारा श्रीविद्या का विस्तार :- गुप्तगायत्री ही शक्ति कुलों, श्रीविद्या व महाविद्याओं का साधक के भीतर इस प्रकार से विस्तार करती है, यथा :-
अन्नमय कोष ---- त्रयाक्षरी विद्या
प्राणमय कोष ---- षडाक्षरी विद्या में विस्तार
मनोमय कोष ---- नवाक्षरी विद्या में विस्तार
विज्ञानमय कोष ---- द्वादशाक्षरी विद्या में विस्तार
आनंदमय कोष ---- पंचदशाक्षरी विद्या में विस्तार
(गुप्तगायत्री की दीक्षा के बाद साधना करते हुए साधक के अन्नमय कोष से प्राणमय कोष में प्रवेश व षडाक्षरि विद्या में विस्तार होने पर शरीर के अन्य कोषों में पंचदशाक्षरी के रूप में अपनी वृद्धि करते हुए साधक के आत्मतत्व को स्वयं में लीन कर लेने तक यह मूलविद्या अपना विस्तार स्वयं ही करती है, व इस मध्य गुरु की कोई भूमिका नहीं होती है, गुरु मात्र दृष्टा होता है और शिष्य कर्ता व दृष्टा मात्र होता है, तथा षडाक्षरि विद्या से लेकर पंचदशाक्षरी विद्या तक की दीक्षा नहीं हो सकती है क्योंकि यह पराम्बा का अपना स्वयं का विस्तार है जिसे वह स्वयं ही करती है !)
पंचदशाक्षरि विद्या में विस्तार संपन्न होने के बाद यह मूलविद्या हादी, कादी, सादी ओर वादी परमविद्याओं के रूप में इन चार श्रीकुल, कालीकुल, ताराकुल ओर त्रिपुराकुल के रूप में समायोजित हो जाती है, ओर यह मूलविद्या पुनः प्रत्येक कुल में प्रत्येक पुरुषार्थ के अनुरूप अपने कर्तव्य धारण करते हुए चार चार महाविद्याओं अर्थात कुल सोलह महाविद्याओं व उनके सोलह भैरवों के रूप में पुनः उत्पन्न होकर अपना विस्तार करती है तथा इसी समय पर यह पंचदशाक्षरी मूलविद्या कुलानुसार एक बीजाक्षर से युक्त होकर “षोडशाक्षरी विद्या” तथा चारों पुरुषार्थों को संपन्न करने में सक्षम कुलस्वामिनी की चार महाविद्या रूपी अवस्थाओं का समूह होने के कारण “श्रीविद्या” कहलाती है, और यहीं से इस मूलविद्या का “कुलानुसार श्रीविद्या दीक्षा” तथा “भोगानुसार महाविद्या दीक्षा” व साधना प्रकरण प्रारम्भ होता है, यथा :-
________________श्रीकुल_______________कालीकुल_______________ताराकुल_______________त्रिपुरा
धर्म – बालरूप - षोडशी__________________काली___________________तारा________________कामाक्षी
अर्थ – तरुण रूप - त्रिपुरसुन्दरी____________???____________________???__________________???
काम – प्रौढ़ा रूप - राजराजेश्वरी____________???____________________???__________________???
मोक्ष – वृद्धा रूप - ललिताम्बा_____________???____________________???__________________???
(गुप्तगायत्री द्वारा श्रीविद्या में प्रवेश अथवा सीधे श्रीविद्या की दीक्षा के बाद साधना करते हुए सन्यासी व गृहस्थ साधक को प्रथम पुरुषार्थ धर्म की बालरूपा महाविद्या शक्ति अपने नियन्त्रण व धर्म में स्थित करती है, इसके लिए वह अपने साधक के धर्म विरुद्ध सभी कर्मों व अवस्थाओं को अवरुद्ध करती है, इस मध्य पराम्बा अपने साधक के मन मस्तिष्क को ऐसी ऊर्जा से भर देती है कि वह साधक केवल धर्म का ही अनुसरण करता है ! तदुपरांत साधक के पुर्णतः धर्मनिष्ठ हो जाने पर बालरूपा महाविद्या शक्ति अपने साधक को द्वितीय पुरुषार्थ अर्थ की तरुणीरूपा महाविद्या शक्ति को अग्रसारित करती है जहाँ द्वितीय पुरुषार्थ अर्थ की महाविद्या शक्ति अपने साधक को धर्म के अधीन ही अर्थोपार्जन के अनेक मार्ग बनाकर सन्यासी को पूर्ण तृप्ति व गृहस्थ साधक को असीमित अन्न, धन से परिपूर्ण कर तृतीय पुरुषार्थ काम की प्रौढ़रूपा महाविद्या शक्ति को अग्रसारित करती है जहाँ तृतीय पुरुषार्थ काम की महाविद्या शक्ति अपने साधक को धर्म व अर्थ से परिपूर्ण रखते हुए सन्यासी को इन्द्रिय, तत्व व अवस्थाओं पर तथा गृहस्थ को भौतिक शासन सत्ता सहित असीमित सुख भोगों को प्रदान कर चतुर्थ पुरुषार्थ मोक्ष की वृद्धारूपा महाविद्या शक्ति को अग्रसारित करती है जहाँ वह मोक्ष की स्वामिनी अपने सन्यासी व गृहस्थ साधक को सदैव के लिए स्वयं में समाहित कर लेती है, इसमें भी गृहस्थ को यह सौभाग्य मृत्यु के समय और सन्यासी को जीवित रहते हुए ही प्राप्त हो जाता है ! इसका प्रथम चरण पूर्ण होने के बाद शेष तीन चरणों में गुरु की कोई भूमिका नहीं होती है, गुरु मात्र दृष्टा होता है और शिष्य कर्ता व दृष्टा मात्र होता है, क्योंकि धर्म में स्थित होने के बाद के तीनों चरणों में पराम्बा द्वारा अपने साधक को स्वयं में लीन कर लेने तक की क्रिया को पराम्बा स्वयं ही संपन्न करती है !)
इन चार कुलों में षोडशी, तारा, काली, त्रिपुरसुन्दरी, त्रिपुरभैरवी, मातंगी, ललिताम्बा, भुवनेश्वरी, राजराजेश्वरी, छिन्नमस्ता, बगलामुखी, कामाक्षी, आनंदभैरवी, धूमावती, उन्मत्त्भैरवी और त्रिपुरा आदि सोलह महाविद्याएँ हैं ! इसके उपरान्त यह सोलह महाविद्याएँ अपनी आठ आठ नायिकाओं को उत्पन्न करती हैं जो कि इनके कुल की देवियाँ कहलाती हैं जैसे :- तारा की- नीलतारा, उग्रतारा आदि, व काली की- दक्षिण काली, जयंती काली आदि, ओर चार चार योगिनियों को उत्पन्न करती हैं, जो कि चौंसठ योगिनी कहलाती हैं !
श्रीविद्या के इन चारों कुलों में कुलसाधना हेतु कुलानुसार बीजयुक्त एक ही षोडशाक्षरी मन्त्र होता है, जबकि भोग साधना (क्रमदीक्षा) में प्रत्येक महाविद्या का अपना पृथक पृथक मन्त्र होता है ! श्रीविद्या के इन चार कुलों में अपने साधक को श्रीविद्या साधना के नियमानुसार धर्म में स्थित करके अग्रिम दीक्षा से संपन्न कर अर्थार्जन हेतु अग्रसारित करने वाली बालस्वरुपा – षोडशी, काली, तारा ओर कामाक्षी होती हैं, और श्रीविद्या साधना के नियमानुसार धर्म, अर्थ व काम की साधना संपन्न कर चुके अपने साधक को अन्त में मोक्ष प्रदान करके स्वयं में समाहित करने वाली वृद्धास्वरुपा – ललिताम्बा, धूमावती, भुवनेश्वरी ओर त्रिपुरा होती हैं !
श्रीविद्या के सम्प्रदाय:- गुप्तगायत्री साधना को करने वाला साधक सृष्टि, शरीर व आत्मा के असंख्य रहस्यों को आत्मसात करते हुए श्रीविद्या के क्रमशः चारों कुलों की सम्पूर्ण चारों अवस्थाओं की कुलोपासना करते हुए निर्द्वंद होकर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष आदि पुरुषार्थों को प्राप्त करता है ! तथा यह साधक क्रमशः चारों कुलों की सम्पूर्ण चारों अवस्थाओं की कुलोपासना संपन्न करने पर श्रीविद्या के किसी भी कुल की कुलदीक्षा, अथवा भोग दीक्षा प्रदान करने हेतु स्वतन्त्र व सक्षम होता है ! तथा श्रीविद्या के नए सम्प्रदाय का प्रवर्तक होता है और इस सम्पूर्ण क्रम को अभी तक केवल शिव, कुबेर, ह्यग्रीव, लोपामुद्रा, मन्मथ, नन्दिकेश्वर, आनंदभैरव ही पूर्ण कर पाए हैं, जिनमें से ह्यग्रीव, लोपामुद्रा, नन्दिकेश्वर ओर आनंदभैरव सम्प्रदाय ही वर्तमान में शेष हैं !
श्रीविद्या की परम्पराएं :- गुप्तगायत्री साधना को करने वाला साधक शरीर व आत्मा के असंख्य रहस्यों को आत्मसात करते हुए श्रीविद्या के किसी भी एक कुल की सम्पूर्ण चारों अवस्थाओं की कुलोपासना करते हुए निर्द्वंद होकर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष आदि चारों पुरुषार्थों को प्राप्त कर पराम्बा में विलीन हो जाता है ! तथा यह साधक अपने द्वारा साधित एक कुल की सम्पूर्ण चारों अवस्थाओं की कुलोपासना संपन्न करने पर श्रीविद्या के अपने द्वारा साधित कुल की कुलदीक्षा, अथवा भोग दीक्षा प्रदान करने हेतु स्वतन्त्र व सक्षम होता है ! तथा श्रीविद्या की नई परम्परा का प्रवर्तक होता है न की सम्प्रदाय का प्रवर्तक, और इस सम्पूर्ण क्रम को अभी तक केवल शिव, मनु, चन्द्र, कुबेर, ह्यग्रीव, लोपामुद्रा, मन्मथ, अग्नि, सूर्य, अगस्त, स्कन्द, दुर्वासा, कामराज, कपिल मुनि, नन्दिकेश्वर, आनंदभैरव व आदि शंकराचार्य ही पूर्ण कर पाए हैं, जिनमें से ह्यग्रीव, लोपामुद्रा, कपिलमुनि, नन्दिकेश्वर, आनंदभैरव और आदि शंकराचार्य परम्पराएं ही वर्तमान में शेष हैं !
कुल साधना (श्रीविद्या पूर्णदीक्षा) :- श्रीविद्या के किसी भी एक कुल, सम्प्रदाय व परम्परानुसार पूर्णदीक्षित हुए साधक द्वारा श्रीविद्या के अपने कुल की सम्पूर्ण चारों अवस्थाओं की कुलोपासना करते हुए निर्द्वंद होकर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष आदि चारों पुरुषार्थों को प्राप्त कर पराम्बा में विलीन हो जाता है ! तथा यह साधक भी अपने कुल की सम्पूर्ण चारों अवस्थाओं की कुलोपासना संपन्न करने पर श्रीविद्या के अपने द्वारा साधित कुल की कुलदीक्षा, अथवा भोग दीक्षा प्रदान करने हेतु स्वतन्त्र व सक्षम होता है ! इस विधान को दुर्वासा ऋषि, पुण्यानंद नाथ, अमृतानन्द नाथ, भास्करानन्द नाथ, उमानन्द नाथ, आदि शंकराचार्य, वामाक्षेपा, महातपा, निगमानन्द जी आदि अनेक सिद्ध साधकों ने पूर्ण किया है !
भोग साधना (क्रमदीक्षा) व क्रमदीक्षा की परम्पराएं :- श्रीविद्या के किसी भी एक कुल, सम्प्रदाय व परम्परा में धर्म, अर्थ व काम में से किन्ही एक या दो की अभिलाषा पूर्ति के निमित्त श्रीविद्या की किन्ही एक या दो महाविद्याओं में दीक्षित हुआ साधक वह महाविद्या साधना संपन्न करने पर केवल धर्म, अर्थ, या काम को ही प्राप्त करने बाद अपने कर्मों को यहीं पर भोगता रहता है, क्योंकि धर्म के साथ अर्थ व काम भी प्राप्त हो जाए यह तो असम्भव नहीं, और धर्म के बिना प्राप्त अर्थ या काम के मद से उत्पन्न हुए अहं से धर्म बचा रह जाए यह सम्भव ही नहीं है, तो मोक्ष क्या आम के पेड़ पर लटका हुआ फल है जो गए और धन, बल से वो पेड़ ही अधिग्रहण कर लेंगे !!!
इस साधना का साधक अपने द्वारा साधित महाविद्या की साधना संपन्न करने पर अपने द्वारा साधित महाविद्या की भोग दीक्षा ही प्रदान करने हेतु स्वतन्त्र व सक्षम होता है ! इस विधान को परशुराम, दत्तात्रेय, सहजानन्द नाथ, भगानन्द नाथ, भास्करानन्द नाथ, निजात्मानंद नाथ, उमानन्द नाथ, आदि शंकराचार्य, वामाक्षेपा, निगमानन्द जी आदि अनेक सिद्ध साधकों ने पूर्ण किया है, जिसमें श्रीकुल की दत्तात्रेय परम्परा व ताराकुल की वामाक्षेपा परम्परा सर्वाधिक प्रचलन में है !
गुप्तगायत्री, कुलसाधना (पूर्णदीक्षा) व भोग साधना (क्रमदीक्षा) तक के विधान को "श्रीविद्या साधना" ही कहा जाता है ! तथा इसकी दीक्षा व साधना या तो गुप्तगायत्री मूलविद्या में हो सकती है (जो कि वर्तमान में दुर्लभ है) अथवा श्रीविद्या कुलानुसार बीजाक्षर से युक्त “षोडशाक्षरी श्रीविद्या” के रूप में हो सकती है, अन्यथा षडाक्षरि विद्या से लेकर पंचदशाक्षरी विद्या तक की दीक्षा कदापि नहीं हो सकती है, क्योंकि यह पराम्बा का त्रयाक्षरी विद्या से अपना स्वयं का विस्तार है जिसे वह स्वयं ही पूर्ण करती है, इसलिए षडाक्षरि विद्या से लेकर पंचदशाक्षरी विद्या तक की दीक्षा तो पराम्बा स्वयं भी नहीं दे सकती हैं, फिर हम जैसे अन्न्पौषित जीवों की ऐसा करने की क्षमता कैसे हो सकती है ?
(उपरोक्त में एक कुल श्रीकुल व दो अवस्थाओं की स्थिति को यहाँ स्पष्ट लिख दिया गया है, शेष तीन कुल व दो अवस्थाओं को यहाँ स्पष्ट करना अनिवार्य नहीं है, क्योंकि जो अन्य कुल व अवस्था के ज्ञाता हैं उनको तो ज्ञात ही है, और जिनको ज्ञात नहीं है वह कृपया अपने गुरुदेव से यह ज्ञान लें, अन्यथा यहाँ पढ़ पढ़ कर सभी श्रीविद्या के प्रवक्ता और रैकी हीलर बन जायेंगे और यह गूढ़ विद्या रैकी और मनोरंजन का केंद्र बन जाएगी !)
यदा कदा यह भी देखा व सुना जाता है कि कुछ महापुरुष गुप्तगायत्री व श्रीविद्या की दीक्षा के नाम पर पंचदशाक्षरी, भोग साधना (क्रमदीक्षा) व षोडशी महाविद्या के त्रयाक्षरी मन्त्र की दीक्षा देते हैं, ऐसे महापुरुषों को चाहिए कि वह अपने व अपने शिष्य समूह के जीवन व भविष्य को ध्यान में रखते हुए पहले अपने गुरु से स्वयं “षोडशाक्षरी विद्या” को विधिवत धारण करके उसकी साधना संपन्न करनी चाहिए तदुपरांत अपने शिष्य समूह को यह परम श्रेष्ठ विद्या प्रदान करनी चाहिए, अन्यथा अपनी अपरिपक्वता, प्रतिद्वंदी व आलोचक विध्वंसक तन्त्र के ज्ञान तथा भौतिक समृद्धि के मद में आकर अपने व अपने शिष्य समूह के जीवन व भविष्य को अपनी विलासिता में व्यय नहीं करना चाहिए !
विशेष तथ्य यह भी है कि जो विवेकवान साधक अपना कल्याण चाहते हैं वह कुलोपासना सम्पन्न कर सभी भोगों को भोग लेते हैं और पूर्ण निवृत भी हो जाते हैं ! और जिनको सही मार्गदर्शन नहीं मिलता है अथवा जो सही मार्गदर्शन मिलने पर भी अहंकार की उपासना ही करना चाहते हैं वह साधक या तो भोग साधना (क्रमदीक्षा) को प्राप्त कर उसके भोगों में अपने सत्कर्मों की तिलांजली करते हैं, या फिर महाविद्याओं और उनकी नायिकाओं व योगिनियों अथवा अन्य अनेक पराशक्तियों की शक्तियों का अपने स्वार्थ, धन, अहंकार, बैर, पद, प्रतिष्ठा आदि के लिए मारण, प्रताड़न, दमन, उच्चाटन, विद्वेषण आदि में प्रयोग कर अपनी अनेक जन्मों के लिए दुर्गति होने की नींव ही मजबूत करते हैं और बात करते हैं कल्याण की !!! डंडा जिसके हाथ में हो वह किसी को डंडा मारे तो यह कर्म डंडे का तो नहीं होगा ? यह कर्म तो डंडा मारने वाले का ही होता है, ठीक उसी प्रकार उन पराशक्तियों की शक्ति, तन्त्र या प्रभाव रूपी डंडा जिसके हाथ में है वो किसी को वह शक्ति या तन्त्र रूपी डंडा मारे तो वह कर्म तो डंडा मारने वाले का ही होगा, यह कर्म मेरा या किसी और का कर्म तो नहीं बन जायेगा !!! यह इसलिए लिखा गया है क्योंकि कुछ तन्त्र व ऐन्द्रजालिक चमत्कारों के सहारे पर सिद्धगुरु कहलाने वाले महापुरुष यह तन्त्र रूपी डंडा मारने की क्रिया को ही वास्तविक और सच्ची शक्ति उपासना का आवरण दिए हुए हैं !

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